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________________ १६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५१६ १४ परम भाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय करके देखिये । सत् के अतिरिक्त और क्या दीखता है ? इसी प्रकार जीव द्रव्य को देखे तो चिन्मात्र के अतिरिक्त और क्या दिखता है ? न वहा उत्पाद को अवकाश है न व्यय को । उत्पाद व व्यय के विना ध्रुव भी किसे कहै ? अतः वह सत् त्रयात्मक है ही नही । ज्ञान चारित्र आदि गुणों का द्वैत भी उस विविक्त व अछूते चित् सामान्य में कैसे सम्भव हो। अतः वह तो इन सर्व द्वन्दो से पृथक कोई स्वलक्षण भूत एक स्वभाव वाला ही है । इसके अतिरिक्त और कहे भी क्या ? तात्पर्य यह कि इस नय के द्वारा वस्तु का केवल एक विविक्त सामान्य त्रिकाली शुद्ध भाव ही स्वभाव माना जाता है, जैसे द्रव्य सामान्य सत् स्वभावी है, जीव ज्ञानस्वभावी है, कर्म व शरीर अचेतन व मूर्त स्वभावी है, कालाणु व पुद्गलाणु एक प्रदेशस्वभावी है इत्यादि। एक द्रव्य के स्वभाव मे अन्य द्रव्य के कर्तत्वादि की कोई भी अपेक्षा ग्रहण नही की जा सकती, क्योकि स्वभाव स्वतः सिद्ध होता है । इसलिये कर्मो के उदय व क्षय आदि की अपेक्षा से रहित जीव का स्वभाव तो त्रिकाली शुद्ध ही है । न उसमे बन्ध था और न दूर हुआ । वह तो पहिले ही से मुक्त था और अब भी मुक्त है। युक्ति उत्पन्न करने का प्रश्न ही क्या ? अत. ससार व मोक्ष का द्वैत ही टिकता नहीं। मोक्ष मार्ग कोई चीज नही । स्वतः सिद्ध स्वभाव मे न किसी का कर्तापना है और न भोक्तापना न बन्ध है और न मोक्ष, तथा न उनका कोई कारण ही है। साख्य मत मे पुरुष तत्वको त्रिकाली शुद्ध व अपरिणामी माना है, सो इसी नय की अपेक्षा समझना सर्वथा नही । क्योकि जीव का पारिणामिक भाव वास्तव में वैसा ही है। इस प्रकार अन्य सर्व भावो को गौण करके, उन से व्यावृत तथा , अत्यन्त विविक्त एक मात्र पारिणामिक भाव के आश्रय पर, द्रव्य का . निर्विकल्प परिचय देना इस नय का लक्षण है ।।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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