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________________ १५ शब्दादि तीन नय ४३२ १०. एवभूत नय का लक्षण प्रकार की वस्तु सज्ञा करण करते समय दिखाई देती है बिल्कुल वैसा ही नाम उस समय उस वस्तु का रखा जाना चाहिये । अर्थात यह नय वस्तु की वर्तमान क्षण की एक क्रिया विशेष को देखकर ही उसे कुछ नाम देता है । इस की सूक्ष्म क्षणिक दृष्टि में उस समय उसी वस्तु की भूत व भावि काल की पर्यायो का अभाव हो जाता है । यही कारण है कि इस नय को भाव निक्षेप में निक्षिप्त किया गया है । जैसा शब्द बोला जाये वैसा ही उसका वाच्च पदार्थ होना चाहिये । अर्थात व्युत्पत्ति के आधार पर जो कुछ अर्थ समभिरूढ़ नय ने उस शब्द का किया था, विल्कुल उसके अनुरूप परिणत पदार्थ ही उस शब्द का वाच्च हो सकता है, अन्य रूप से परिणत और वही पदार्थ उस समय उस शब्द का वाच्य नही वन सकता, इसी प्रकार जैसी क्रिया से विशिष्ट वह पदार्थ दिखता है उस का वाचक शब्द भी उस समय वैसी क्रिया को दर्शाना वाला ही होना चाहिये । रूढि वश बोले गये शब्दो का यहा सर्वथा लोप है । जैसे 'गो' शब्द का अर्थ 'चलने वाला' ऐसा होता है, अत चलते समय ही उस शब्द का प्रयोग करना चाहिये, बैठे या सोते समय नही । प्रत्येक ही चलने वाले पदार्थ मे भी इस का अर्थ नही जा सकता, क्योकि समभिरूढ नय पहिले ही इसके प्रति प्रतिबन्ध लगा चुका है । यहा एवभूत नय मे तो समभिरूढ़ नय के द्वारा स्वीकारे गये अर्थ मे भी भेद करना इष्ट है । समभिरूढ नय को दृष्टि मे गाय नाम का पशु-विशेष 'गाय' है, भले चलती हो कि बैठी भले पुरो को विदारण करने मे प्रवृत्त न हो पर रूढ़ि वश इन्द्र हर समय पुरन्दर भी कहा जा सकता है । एवंभूत ऐसा स्वीकार नही कर सकता । वहां तो चलती हुई गाय को ही 'गौ' शब्द का वाच्च बनाता है, बैठने व सोने वाली को नही । इसी प्रकार पुरों का विदारण
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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