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________________ १५. शब्दादि तीन नय ४२३ ८. समभिरूढ नय का लक्षण अर्थ -- समाभिरूढ नय पर्याय शब्दो मे भिन्न अर्थ को घोतित करता है । जैसे इन्द्र, शक्र, और पुरन्दर शब्दो के के पर्यायवाची होने पर भी इन्द्र से परम ऐश्वर्यवान शक्र से सामर्थ्यवान और पुरन्दर से नगरो को विदारण करने वाले भिन्न भिन्न अर्थो का ज्ञान होता है । वास्तव मे इन्द्र शब्द के कहने से इन्द्र शब्द का वाच्य परम ऐश्वर्य पना इन्द्र मे ही मिल सकता है । जिसमे परम ऐश्वर्य नही है, उसे केवल उपचार से ही इन्द्र कहा जा सकता है । इसलिये जो वास्तव मे परम ऐश्वर्य से रहित है उसे इन्द्र नही कह सकते। अतएव परस्पर भिन्न अर्थ को प्रतिपादन करने वाले शब्दो मे आश्रय और आश्रयी सम्बन्ध नही बन सकता । इसी तरह भिन्न भिन्न व्युत्पत्ति के निमित्त से शक्र और पूरन्दर शब्द भी भिन्न अर्थ को द्योतित करते हैं । अतएव भिन्न व्युत्पत्ति होने से पर्यायवाची शब्द भिन्न भिन्न अर्थो के द्योतक है । जिन शब्दो की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न होती है वे शब्द भिन्न भिन्न अर्थो के द्योतक होते हैं, जैसे इन्द्र पशु और पुरुष शब्द । पर्यायवाची शब्द भी भिन्न व्युत्पत्ति होने के कारण भिन्न अर्थ को सूचित करते है। ४. स म ।२८।३१६।श्ल ६ उद्धत "तथाविध स्य तस्यायि वस्तुनः क्षणवर्तिन. । ब्रूते समभिरूढस्तु सज्ञाभेदन भिन्नताम् ।६।" अर्थ- तथाविध उस ऋजसूत्र की विषयभूतक्षवणर्ती वस्तु को समाभिरूढ नय सज्ञा भेद के द्वारा भिन्न भिन्न जानता है । ५ स म.त. १६१।४ ''समभिरूढनयापेक्षया शब्दभेदाढ्वार्थभेद स्तथा अर्थभेदादपि शब्दभेदस्सिद्ध एव । अन्यथा वाच्य वाचकनियम व्यवहार विलोपात् ।”
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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