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________________ २४ ३. प्रतिबिम्ब व चित्रण पहिले पीछे बनाई जानी ही सभव है । पहिले ही क्षण मे सारी रेखाये बनाई जा सके यह संभव नही है । प्रतिबिम्ब मे हिनाधिकता होनी सभव नही है पर चित्रण मे की जानी संभव है । इसलिये प्रतिबिम्ब सदा सच्चा होता है पर चित्रण झूठा व सच्चा दोनों प्रकार का । शब्द व ज्ञान सम्बन्ध देखिये यहा रत्न व विष्टा दो पदार्थ रखे हों, तो क्या दर्पण इस प्रकार का विवेक करेगा कि रत्न को तो अपने अन्दर ले लूं और विष्टा को छोड दू ? प्रतिबिम्ब मे तो दोनों ही युगपत आ जायेगे । वहा अच्छे बुरे का विवेक नही । परन्तु चित्रण मे मेरी कल्पना कार्य करती है इसलिये अरुचिकर होने के कारण यदि में विष्टा को चित्रित न करके केवल रत्न को चित्रित करू, तो क्या मेरा वह चित्रण प्रतिबिम्ब के अनुरूप हो सकेगा ? नही । और इसलिये वह चित्रण सच्चा नही कहा जायेगा । जव एक वस्तु का चित्रण ही खेचना है तो अच्छे बुरे का प्रश्न क्यों ? चित्रण को प्रतिबिम्ब के अनुसार बनाने का प्रयत्न करे तभी वह सच्चा हो सकेगा । ज्ञान वास्तव में एक दर्पणवत है । जो वस्तु इसके प्रत्यक्ष होती है उसका तो तदनुरूप प्रतिबिम्ब इसमे अवश्य पडता ही है, भले ही वह वस्तु अच्छी हो या बुरी । अच्छी को प्रतिबिम्ब रूप से ग्रहण करना और बुरी को छोड़ देना ज्ञान का काम नहीं । मास व फल दोनो को ही यह तो प्रतिबिम्बके रूप में ग्रहण कर लेगा । ज्ञान छोड़ना नही जानता । आगमोक्त हेयोपादेय का विवेक ज्ञान के प्रतिबिम्ब सबधी नही है । वल्कि चारित्र सबधी है । बिना जाने तो हेय व उपादेय का भेद भी कैसे हो सकेगा । ज्ञान का काम तो सहज प्रतिबिम्बों को ग्रहण करने का है छोड़ने का नही । प्रत्यक्ष विषयों के सबंध मे तो यह नियम स्वत. प्राकृतिकरूप से पल ही रहा है । यहां तो अप्रत्यक्ष विषय के संबंध मे कुछ जानना अभीष्ट है । इस विषय का प्रतिबिम्ब तो पड़ नही सकता । भले ही आगे जाकर ज्ञान में वह शक्ति जागृत हो जाये कि इस पदार्थ का भी सहज प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सके, पर आज तो उसमे वह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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