SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ शब्दादि तीन नय ३६२ ५. व्यभिचार का ग्रयं अन्य रीति से भी शब्द प्रयोग के दो प्रकार हैं- एक पदार्थ के वाचक अनेक शब्द और प्रत्येक पदार्थ का वाचक स्वतंत्र एक ही शब्द | तहा (i) शब्द नय में अनेक पर्यायवाची शब्दो का वाच्य एक ही होता है । (ii) समभिरूढ मे चूँकि शब्द नैमित्तिक पदार्थ है, अत एक ! शब्द का वाच्य एक ही होता है । एव भूत वर्तमान निमित्त को पकड़ता है अत उसके मत से भी एक शब्द का वाच्य एक ही होता है | का अर्थ शब्द नय की व्याख्या प्रारम्भ करने से पहिले यहा, व्यभिचार ५ व्यभिचार शब्द से क्या तात्पर्य है, यह समझा देना आवश्यक है, क्योकि यह व्यभिचार दोप ही शब्द नय की व्याख्या का मूल आधार है । जिम धर्म का जिस पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो उससे अतिरिक्त किसी दूसरे पदार्थ के साथ भी उसका कथन करना व्यभिचार दोष कहलाता है । जैसे 'शब्द अनित्य है । क्योकि यह जाना जाने योग्य है' ऐसा हेतु व्यभिचारी कहलाता है, क्योकि जाने जाने योग्य पदार्थ तो नित्य भी होते है । तीनो व्यञ्जन नये, क्योकि व्याकरण प्रधान नये अर्थात शब्द व अर्थ के वाचक-वाच्य सम्वन्ध की स्थापना करते हैं, इसलिये इन नयो के विषय के व्यभिचार का क्षेत्र, शब्द का प्रयोग मात्र है । कौन शब्द का प्रयोग किस पदार्थ के लिये करना चाहिये तथा कौन शब्द का लक्षण किस शब्द के द्वारा करना चाहिये इसे शब्द सम्वन्धी विवेक कहते है । इस प्रकार के विवेक रहित जिस किस भी शब्द को जिस किस पदार्थ का वाचक बनाना अथवा जिस किस भी शब्द का अर्थ जिस किस भी अन्य शब्द द्वारा प्रतिपादन करना, यहां
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy