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________________ ३५५ १४. ऋजु सूत्र नय २. ऋजु सून नय सामान्व के लक्षण नहीं बनता है, क्योंकि जो सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और इसलिये जिन्होंने अपने (स्वतंत्र) स्वरूप को छोड़ दिया है, ऐसे दो पदार्थो मे सयोग सम्बन्ध अथवा समवाय सम्बन्ध मानने मे विरोध आता है । ६. क. पा. १। १६५-१९६ ।२३०१८ "नास्य नयस्य ग्राह्य ग्राहक भावोऽस्ति ।.....न सम्वन्ध तस्यातीतत्वात् ।... .. नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽण्यस्ति ।" अर्थ --उपरोक्त ही प्रकार इस नय से ग्राह्यग्राहक भाव भी सिद्ध नही हो सकता, क्योंकि कोई भी सम्बन्ध होने के क्षण मे तो कार्य नहीं होता और उत्तर क्षण मे कार्य होने पर वह सम्बन्ध वाला क्षण बीत चुकता है। इसी प्रकार इस शुद्ध नय मे वाच्य वाचक भाव भी नही माना जा सकता। १०. स० म० । २८।३१३ । ७ “एवमस्याभिप्रायेण यदेव स्वकी यम् तदेव वस्तु, न. परकीयमनुपयोगित्वात् ।" अर्थ-इस नय के अभिप्राय से जो स्वकीय है वही वस्तु है, परकीय नहीं; क्योकि वह दूसरी वस्तु के लिये अनुपयोगी है, अर्थात उसके लिये कोई भी अन्य सहायक या निमित्त नही हो सकता। ६ लक्षण नं ६ (अनेकता का निरास) - १. क पा. १।२७७१३१३ ।५ “एगउवजोगस्स अणेगेसु दन्वेसु अक्कमेण उत्तिविरोहादो। अविरोहो वा ण सो एक्को उवजोगो; अणेगेसु अत्थेसु अक्कमेण वट्टमाणस्स एयन्त विरोहादो। ण च एयस्स जीवस्य अक्कमेण अणेया उवजोगा सभवति; विरुद्धधम्मज्झासेण जीववहुत्वपसंगादो।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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