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________________ - १ पक्षपात व एकान्त, । १६ ८ अनेकान्त वाद का जन्म स्वीकार कर लेता । अन्धों की-भाति हां मे हा मिलाने को नही कहा जा रहा है, बल्कि बुद्धि पूर्वक उन मतों मे पड़ी सत्यता की खोज करने को कहा जा रहा है । और इसी प्रकार ३६३ ही नहीं, असंख्याते मत या सत्य के रूप हो सकते है । जितने भी वचन पंथ है सब मे कुछ न कुछ सत्य है । यदि खोजे तो अवश्य मिलेगा और यदि पहिले ही निपेध कर दे तो क्या मिलेगा । और उस निषेध किये गये एक सत्य के अभाव मे तेरी अधूरी मान्यता भले ही वह जैन आगम के आधार पर हो, सत्य कैसे हो सकेगी। ३६३ मतो का एक गुलदस्ता बनाये तभी सत्य के दर्शन हो सकते हैं । यदि इनमे से एक भी फूल निकालकर अलग कर देतो ३६२ मतों से निश्चित ही गुलदस्ता शोभा को प्राप्त न हो सकेगा। अर्थात् एक मत का भी निषेध करके यदि असंख्यते मतों को स्वीकार करे तो एकान्त कहलायेगा, अनेकान्त नही । जैन होकर भी यदि में किसी का निषेध करता है और उसे समझने का प्रयत्न नहीं करता तो मै वास्तविक जैन या अनेकान्ती नही हूँ। मुझे एकाती या कदाग्रही ही क्यो न कहा जाय ? इस प्रकार के एकान्त कदाग्रह के फल स्वरूप हम सदा से परस्पर अनेकान्त वाद में लड़ते-झगड़ते चले आ रहे है । आज तक हमने यथार्थ का जन्म दृष्टि से न जागृत की और न अपने हित को खोज सके । वीतरागमार्ग मे से भी द्वेष का पोषण करते रहे । जब वीर प्रभुजनसम्पर्क मे आये और उन्होंने लोगों में फैले इस दुष्ट कदाग्रह का साक्षात किया तो मानो उनका हृदय रो उठा । अरे भव्य जीवों ! लौकिक दिशा मे तो सर्वदा अपना अहित ही करते हो, पर इस अलौकिक दिशा में भी आकर उसका ही प्रयोग ? सम्भलो, जिस प्रकार सरलतापूर्वक लौकिक व्यापारों मे बोली गई भाषा के अर्थ यथायोग्य रूप से स्वतः लगा लेते हो, उसी प्रकार यहां क्यों नही लगाते । यहां ज्ञान में करडाई करके यह कदाग्रह व पक्षपात किसके लिये करते हो । याद रखो यह स्वयं आपका ही घात कर रहा है, दूसरों का नही ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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