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________________ १३ सग्रह व व्यवहार नय ३३४ ६ सग्रह व व्यवहार नय समन्वय खट्टा मीठा आदि न चखना तो बताओ तो सही कि क्या यह सम्भव हो सकेगा ? ऐसा होना असम्भव है। यही कारण है कि विशेपो या भेदो रहित सामान्य को गधे के सीग वत् असत् कहा गया है । विना विशेषो को स्वीकार किये या उनको भ्रम मात्र कहकर उनके प्रति आख मूद लेने से उस सामान्य सत् को कहा व कैसे खोज सकेगे ? इन रूणे मे ही तो वह सत् बैठा हुआ है । इनसे बाहर किसी दूसरे दिव्य देश मे उसका निवास हो ऐसा नहीं है । अत: इन रूपो को भ्रम कहने पर वह सत् भी भ्रम मात्र होकर रह जायेगा। इस लिये उस सत् का ही साक्षात कराने के लिये उसके भेद रूप इन रूपों को दर्शाने वाले इस व्यवहार को स्वीकारना योग्य ही है। दूसरे केवल सत् नाम के पदार्थ का तो लोक मे न्यवहार चल नही सकता जिसका व्यवहार ही नही चल सकता या जो वस्तु लोक मे कुछ काम ही नही आ सकती उसका वस्तु पना भी क्या ? अतः विना इन रूपों के व्यवहार को स्वीकारे वह सामान्य सत् अवस्तु हो जायेगा अर्थात् बिना व्यवहार के सत् भी अपनी सत्ता को सुरक्षित न रख सकेगा। इस लिये व्यवहार नय के विषय को यथा योग्य रूप से स्वीकारना ही चाहिये । स्याद्वाद मञ्जरी व राज वार्तिक मे यही कहा भी है। स म ।२८।३११।२३ "व्यवहारस्त्वेव माह । यथा लोक ग्राहमेव वस्तु अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवहियमाण वस्तु परिकल्पन् कष्टपिष्टिकया । यदेवच लोक व्यवहारपथमवतराति तस्यै वानुग्राहक प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य । न हि सामान्य मनादि निधनंमेक समहाभिमतं प्रमाणभूमिः तथानुभवा'भावात्ः। सर्वस्य सर्व दर्शित्वप्रसगाच्च । नापि विशेषाः परमाणुलक्षणाः ": लोकव्यापारोपयोगिनामेव वस्तुत्व -- ' तथा च- वाचक 'मुख्यः (उमास्वामी), "लौकिक ; सम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार : "इति। ' -
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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