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________________ १३. सग्रह व व्यवहार नय ३२४ ४ व्यवहार नय सामान्य (अर्थ -सग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थों में विधि पूर्वक जिस से व्यवहार या भेद किया जाता है वह व्यवहार नय है ।) ५ ध० ।१ । ८४ ।४ "संग्रहनयानिक्षिप्तानामथानां विधि पूर्वक मवहरणं भेदनं व्यवहारः, व्यवहारपरतन्त्रो व्यवहार नय इत्तर्थः।" (अर्थ-सग्रह नय मे निक्षिप्त अर्थों का विधि पूर्वक भेद करना व्यवहार है ! अथवा लौकिक व्यवहार का अनुसरण करने वाला व्यवहार नय है। ६ क० पा० ।१।२२० । गा. ८९ "दब्बट्टियणयपयडी सुद्धा सगह परूवणाविसओ।। पडिरूव पुण वयणस्थणिच्छओ तस्य ववहारो॥८९।।' (मर्थः-द्रव्याथिक नय की शुद्ध प्रकृति संग्रह नय की प्ररुपणा का विषय है। उसके प्रत्येक अर्थात भेद रूप पने के वचनो का निश्चय उसका व्यवहार है।) ७. का० अ०।२७३ “यत् संग्रहेण गृहीतं विशेषरहितमपि भेदयति सतत । परमाणुपर्यन्त व्यवहारनय भवेत् सोऽपि ।२७३।" (अर्थ-जो सग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये विशेष रहित विषय मे भी सतत भेद करता हुआ परमाणु या अत्यन्त सूक्ष्मता तक पहुँच जाता है, उसे व्यवहार नय कहते है ।) व्यवहार का अर्थ भेद करना है । सग्रह नय के द्वारा भेदो का सग्रह किया जाता है और व्यवहार नय के द्वारा उस सग्रह में भेद डालो जाता है इसलिये इसका "व्यवहार नय" ऐसा नाम सार्थक
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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