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________________ १३. संग्रह व व्यवहार नय ३१३ २. संग्रह नय सामान्य भेदों से अथवा मिट्टी सोने आदि कारण विशेष भेदो से, अथवा वर्ण व आकार आदि विकारो के भेदो से भिन्न रूप तथा एक घट शब्द के वाच्य उसके सर्व भेद उस एक घट से भिन्न नहीं होने के कारण, उसको एक घट रुप से ग्रहण करना संग्रह नय है। । ३ रा. वा. हि ।१ ।३३।२०० "द्रव्य मे सर्व द्रव्यानि का, पर्यायनि मे सर्व पर्यायनिय, का जीव मे सर्व जीवनि का, पुग्दल मे सर्व पुग्दलनि का सग्रह (सो सग्रह नय है ।) ४ प का ।ता वृ ।७१ ।१२३ “सर्वजीवसाधारण....शुद्धजीव ___जातिरूपेण सग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा ।" (मर्थ:-सर्व जीव' साधारण......शुद्ध जीव जाति रूप से सग्रह नय के द्वारा एक महात्मा रूप से ही ग्रहण करने मे आते है।) इन सर्व उद्धरणो पर से यही दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि, सग्रह नय द्रव्य के अन्तरंग भेदो अर्थात गुणो व पर्यायो को तथा उसके बाह्य जाति भेदो को सग्रह करके द्रव्य के एकत्व को दर्शाता है । सर्व भेदों को सग्रह करके कहने के कारण यह संग्रह नय है। यह तो इस नय का कारण है । और द्रव्य के भेदों को एकत्व दर्शाना इस नय का, प्रयोजन है । जैसे कि स्याद्वाद मञ्जरी में कहा है स म ।२८।३१५ ।श्लो २ “सद्रूपताऽनतिकान्त स्वस्वभावमिद जगत् उद्धत सत्तारूपया सर्व संगृह वन सग्रहो यत ।२।' अर्थ--सत्व धर्म को नही छोडते हुए सर्व पदार्थ अपने अपने स्वभाव मे अवस्थित है। इस लिये सत्व धर्म की अपेक्षा मुख्य करके सग्रह नय सभी जगत को एक रूप ग्रहण - करता है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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