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________________ १३ सग्रह व व्यवहार नय ३०८ १. महा सत्ता व अवान्तर सत्ता वाच्य है । इसी प्रकार पृथक से अचेतन के सम्बन्ध मे भी विचारने पर, उसे एक नित्य तथा एक्य रूप जडब्रह्म मात्र अद्वैत तत्व के रूप में देखा जा सकता है । यह भी अवान्तर सत्ता का विषय है । पुनः भेद दृष्टि करने पर चेतन सत् मक्त व संसारी इस प्रकार से दो भेदों में विभाजित है, और अचेतन सत् पुग्दल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल इस प्रकार से पाच भेदो में विभाजित है। इन सर्व ही चेतन व अचेतन के भेदो को यदि पृथक पृथक अभेद सत्ता के रूप मे देखे तो पूर्व वत् ही वे सब ही, अपने अवान्तर भेदो रूप द्रव्यो मे, तथा क्रमवर्ती उन द्रव्यो की पर्यायो मे तथा सहवर्ती उनके अनेक गुणों मे अनुगताकार रूप से रहते हुए, एक, नित्य व एक्यरूप अद्वैत तत्व के रूप मे देखे जा सकते है। और इसी प्रकार इनके भी आगे के सर्व अवान्तर भेद प्रभेदो को पृथक पृथक ग्रहण करकरके उन-उन की पृथक पृथक अद्वैत सत्ता को देखा जा सकता है । अभेद दृष्टि से देख गये सर्व ही सत् अवान्तर सत्ता कहलाते है । अपने अपने अवान्तर भेदो मे अनुगत रूप से देखा गया प्रत्येक ही सत् अद्वैत होने के कारण सामान्य है, और उसके वे अवान्तर भेद उसके विशेष है । जैसे चेतन अचेतन रूप अवान्तर भेदो मे सादृश्य अस्तित्व रूप महा सत्ता तो सामान्य है और ये चेतन अचेतन उसके विशेष है । इसी प्रकार मुक्त व ससारी रूप अवान्तर भेदों मे अनुगत चेतन की अवान्तर सत्ता तो सामान्य है और ये मुक्त व ससारी उसके विशष है । इस प्रकार महा सत्ता व अवान्तर सत्ताओ की सामान्य व विशष भावो रूप यह श्रखला तव तक चलती रहती है जब तक कि वह अन्तिम अवान्तर भेद प्राप्त नही हो जाता जिसका कि आग भेद किया जाना सम्भव न हो । इनमे से सामान्य सत्ता को स्वीकार करने वाला सग्रह नय है और विशेष सत्ता को ग्रहण करने वाला व्यवहार नय है। -
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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