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________________ १. नैगम नय २५७ ३. भूत र्वतमान व ___भावि नैगम नय । सत्तरः- नैप दोप, नैगमादिनयापेक्षया अगारिणोऽपि व्रतत्वम् नगरावासवत् व्रतत्वयुपपद्यते । यथा गृहे अपवरके वा वसन्नीय नगरावास, इत्युच्यते. तथा असकल व्रतोऽपि नैगम संग्रह व्यवहार नयापेक्षया व्रतीति व्यप दिश्यते ।" (अर्थ- शका है कि अपूर्ण व्रत होने के कारण गृहस्थी को व्रती पना कैसे प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर मे कहते है कि इसमे कोई दोप नही, क्योकि नैगम सग्रह व व्यवहार नयों की अपेक्षा से गृहस्थी को भी व्रतीपना है । उदाहरणार्थ जैसे घर मे रहने वाले को 'नगर मे रहता है' इस प्रकार कह दिया जाता है उसी प्रकार अपूर्ण व्रत होते हुए भी व्रती व्यपदेश बन जाता है ।) ७ वृ. द्र. स ।१४१४८ "वहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वय शक्ति रूपेण, भावि नैगमनयेन व्यक्ति रूपेण च विज्ञेयम् अन्तरात्मावस्थाया तु" परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भावि नैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च ।” अर्थ- वहिरात्मा रूप अवस्था मे अन्तरात्मपना व परमात्मा पना दोनो शक्ति रूप से तो निस्सन्देह स्वीकारनीय है ही, परन्तु भावि नैगम. नय से तो वे व्यक्ति रूप से भी वहा विद्यमान है। और इसी प्रकार अन्तरात्मा रूप अवस्था में भी परमात्म स्वरूप यद्यपि शक्ति रूप से तो है ही, परन्तु भावि नैगम नय से भी वहा है । इस प्रकार भावि काल मे भूत काल का संकल्प भावि नेगम नय से कर लिया जाता है।) - '८. प. ध..१३०।६२१ "तेभ्योऽगिपिद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिणः । गुरुव स्युगु रोन्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१॥
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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