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________________ १२. नैगम नय २३६ १. नैगम नय सामान्य प्रयुज्यते । एवं प्रकारो लोक स व्यवहारः अनभिनिर्वृत्तये सकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहारः। (आगे भी) अर्थ.- अनिप्पन्न अर्थ मे सकल्प मात्र का ग्रहण करने वाला नय नैगम है । यथा-हाथ में फरसा ले कर जाते हुए किसी पुस्प को देखकर कोई अन्य पुरुप पूछता है, आप किस काम के लिये जा रहे है । वह कहता है, प्रस्थ लेने के लिये जा रहा हूँ । उस समय वह प्रस्थ पर्याय (माप) सन्निहित नहीं है, केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमे प्रस्थ व्यवहार किया गया है। इसी प्रकार ईन्धन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुप से कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे है । उसने कहा भात पका रहा हूं । उस समय भात पर्याय सन्निहित नही है, केवल भात के लिये किये गये संकल्प मे भात पकाने का प्रयोग किया गया है । (इस पैरेग्राफ की संस्कृत ऊपर छोड़ दी गई है) क्रमशः ३. रा. वा.।१।३३।२।६५ अथवा 'यहां कौन जा रहा है' इस प्रश्न के उत्तर मे कोई 'बैठा हुआ' व्यक्ति कहे कि 'मैं जा रहा हं ।' इन सब दृष्टान्तो मे प्रस्थ और गमन के या ओदन पकाने आदि के संकल्पमात्रमे वे व्यवहार किये गये है । इस प्रकार जितना लोक व्यवहार अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बन से सकल्प मात्र को विषय करता है वह सब नैगम नय का विषय है । ४ श्ल. वा- ।१।३३।२६९ 'सकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयतत् प्रयो जनः । तथा प्रस्थादि संकल्पः तदभिप्राय इष्यते ।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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