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________________ १२. नैगम नय २३७ १. नैगम नय सामान्य अन्य पदार्थो का संयोग तथा उनका परस्पर का निमित्त नैमित्तिक सम्मेल सर्वथा दृष्टि से ओझल नही किया जा सकता । इसलिये पर चतुष्टय के आधार पर भी वास्तव मे वस्तु का निज वैभव ही दर्शाना अभीष्ट होता है । विना निमित्त नैमित्तिक सयोग को जाने वस्तु की कार्य व्यवस्था का स्पष्ट ज्ञान होना असम्भव है । इसीसे यह नय अत्यन्त स्थूल है । इस प्रकार नैगम नय अनेको दृष्टियों से द्वैत उत्पन्न कर करके उसमे अद्वैत का संकल्प करता है । इसीलिये इसका नाम नैगम है । क्योकि व्याकरण की दृष्टि से " जो एक को नही जानता किन्तु द्वैत को जानता है" उसे नैगम कहते है । नीचे उन सारी दृष्टियों का एक ही स्थान पर संग्रह कर देना उचित है, ताकि विषय को स्मृति मे उतारा जा सके । वास्तव में यह निम्न मे दिये गये कोई पृथक पृथक लक्षण नहीं है, बल्कि वस्तु मे भेद डालकर उसके अभेद को समझना व समझाना ही इसका एक सच्चा लक्षण है । वह भेद ही दो प्रकार के होते है- गुण कृत या सहवर्ती भेद तथा पर्याय कृत या क्रमवर्ती भेद | एक जो एक का ग्राहक न होकर द्वैत का ग्राहक हो उसे नैगम नय कहते है । ( यह लक्षण व्याकरणकी अपेक्षा निरुक्ति रूप अर्थ का द्योतक है ।) १ . संकल्प मात्र ग्राही नॅगम नय है । २. अद्वैत द्रव्य मे गुण पर्यायों का द्वैत देखने वाला नैगम नय है | ३. धर्म धर्मी आदि द्वैत में अद्वैत देखने वाला नैगम नय है |
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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