SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. नैगम नय २३५ १. नैगम नय सामान्य युगपत भी वस्तु का धर्म है । 'गुण' शब्द द्वारा 'पर्याय' का ग्रहण और 'पर्याय' शब्द द्वारा 'गुण' का ग्रहण होता नही । 'धर्म' शब्द के द्वारा 'गुण' 'पर्याय' दोनो का युगपत ग्रहण होता है, इसलिये यहां 'गुण' व 'पर्याय' शब्द के स्थान पर 'धर्म' शब्द को प्रयोग किया है । इसी प्रकारधर्मी शब्द के लिये भी समझ लेना । गुणी, पर्यायी, व अंगी आदि सव शब्दों का अर्थ एक धर्मी शब्द में पड़ा है । यहां धर्म धर्मी आदि की एकता का अर्थ, विशेषण विशेष्य भाव रूप द्वैत मे अद्वैतता का संकल्प करना है । 'सत्' सामान्य के ध्रुव स्वभाव पर से किसी गुण विशेष के ध्रुव स्वभाव का संकल्प करना अथवा 'सत्' सामान्य के ऊध्रुव स्वभाव पर से किसी पर्याय विशेष के क्षणिक स्वभाव का सकल्प करना दो धर्मो में एकता है । " सद्द्रव्य लक्षणम्" ऐसे निर्विकल्प लक्षण पर से अथवा “गुणपर्यय वद् द्रव्यं ऐसे विकल्पत्मक लक्षण पर से द्रव्य सामान्य के अभेद व भेद स्वभाव का संकल्प करना अथवा इसी प्रकार द्रव्य विशेष के लक्षणों पर से उसके स्वभाव का संकल्प करना दो धर्मियों में एकता है । गुण विशेष अथवा पर्याय विशेष पर से किसी द्रव्य विशेष के स्वभाव का सकल्प करना धर्म धर्मी में एकता है । इसका विशेष परिचय द्रव्य नैगम व पर्याय नैगम की व्याख्या करते समय दिया जायेगा । ४. लक्षण न. ४ – अब इसका दूसरी प्रकार से भी लक्षण समझिये | नैगम नय जैसे कि ऊपर बताया गया है संग्रह व व्यवहार इन दोनो नयो के विपय को उल्लंधन कर के अपना कोई पृथक विषय नही रखता । संग्रह व व्यवहार इसी के अंग हैं, या यो कहिये कि संग्रह व व्यवहार नयों में व्यापक रहने वाला नैगम नय है, या यों कहिये कि संग्रह व व्यवहार नयो के समूह का नाम या उनकी एकता का नाम ही नैगम नय है । इसका उदाहरण ऐसा समझना जैसे कि अखंड जीव एक द्रव्य है । उसके मुक्त संसारी, त्रस, स्थावर, पृथिवी JM
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy