SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० ६. नय की स्थापना ६. नय के मूल भेदो का परिचय ३. उस नय का प्रयोग निष्कारण नही सकारण होना चाहिये । और वह कारण ऊपर दर्शा दिया गया है । उस नय के नाम की सार्थकता भी जाननी चाहिये। ४. उस नय का कोई न कोई हितकारी प्रयोजन होना चाहिये । जिसमे श्रोता का अहित हो, वह नय का प्रयोग नही कहलाता । यह नय कितनी होती है, इसके लिये कोई नियम नहीं ६ नयो के मूल किया जा सकता । क्योकि जैसे कि पहिले भेदो का परिचय बताया जा चुका है जितने शब्द है उतनी ही नय हो सकती है । फिर मी अध्यात्म मार्ग मे उपयोगी मुख्य-मुख्य दृष्टियो का प्रतिनिधित्व करने वाली कुछ नये आगम मे कही गई है । यद्यपि यथा अवसर अपनी ओर से नयी नयो की स्थपना की जा सकती है पर यहां तो केवल उन्ही नयों का वर्णन करना अभीष्ट है जो कि आगम मे पहिले से आई हुई है । वैसे तो आगम मे भी नयों के अनेको भेद प्रभेद है पर उन सब की उत्पत्ति जिन दो मूल नयो से हुई है उनका नाम द्रव्यार्थिक व पर्यार्थिक नय है । अर्थात् नये है द्रव्यार्थिक व पर्यार्थिक । आगे जाकर इन के ही भेद प्रभेद बहुत हो जाते है । यद्यपि द्रव्यार्थिक या पर्यार्थिक नय का बिशेष विस्तार तो आगे आयेगा, पर इस स्थल पर उनके सम्बन्ध मे सामान्य कथन कर देना अभीष्ट है । ताकि आगे कहे जाने वाले भेदो की स्थापना के लिये कोई भूमिका तैयार हो जाये। प्रमाण ज्ञान मे तो त्रिकाली द्रव्य पड़ा है, उसके सम्पूर्ण अंग भी वहा पड़े हैं । प्रमाण ज्ञान तो इन दोनों को अर्थात् अगी व अंगो को युग पत स्वीकार करता है । परन्तु द्रव्यार्थिक नय इन दोनों मे से
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy