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________________ ९ नय की स्थापना १८४ ७ वस्तु में नय प्रयोग की रीति बोलने में आता है, और किस प्रकार उसका ठीक ठीक अभिप्राय समझा जा सकता है । तथा वक्ता का उस अभिप्राय से वाक्य बोलने का क्या प्रयोजन या स्वार्थ है, यह भी समझा जा सकना है । बक्ता के उन उन अभिप्रायो या भावो का सज्ञा करण करने के लिये मुझे कुछ शब्द चाहिये । यद्यपि मैं अपनी ओर से भी उनके लिये कोई शब्द निश्चित कर सकता हू पर ऐसा करने से भले ही आप मेरे वक्तव्यो का अभिप्राय तो समझ लेगे, पर आगम वाक्यों का अभिप्राय फिर भी आपकी समझ में न आ सकेगा । क्योंकि वहां जो शब्द अपने अभिप्रायों का प्रतिनिधित्व करने के लिये लेखकों ने स्वयं प्रयुक्त किये है, उनका अर्थ समझे बिना उनका अभिप्राय समझा जाना असम्भव है । अत में आगम कथित ही मुख्य मुख्य नयो के प्रयोग का रूप आपको दर्शाऊंगा । 4 वस्तु के अनेक अगो मे से वक्ता किसी भी अंग को किसी भी वस्तु मे ७ समय किसी प्रयोजन विशेष वश मुख्य करके कह सकता है । उस समय श्रोता को ऐसा लगेगा मानो नय प्रयोग की रीति यह दूसरे अंगों को या तो भूल गया है, या उनका निषेध कर रहा है । दृष्ट पदार्थो मे तो ऐसे सशय को अवकास होने नही पाता, हा अदृष्ट पदार्थो मे अवश्य ऐसा होता है । श्रोता के इस सशय के निवारणार्थ वक्ता उन पृथक पृथक अगो का स्वरूप अनेको दृष्टान्तो व उदाहरणो के आधार पर आगे पीछे विस्तृत रूप से समझाता है श्रोता जब उस उस अग का वह स्वरूप समझ जाता है तब आगे आगे के प्रकरणो मे पुन पुनः प्रकरण आने पर वही स्वरूप दोहराना न पड़े, इसलिये उन अंगों का सज्ञाकरण कर देता है, ताकि अवसर' आने पर केवल एक शब्द कहना ही श्रोता को उस अग तक ले जाने मे पर्याप्त हो सके । यह काम तो अर्थात वस्तु के अनेको अगों का,संज्ञाकरण तो, अब तक के विस्तृत कथन मे किया 1 जा चुका, 1 T f i. " I
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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