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________________ ६.. नय की स्थापना १७३ २. नय का लक्षण नही हो पाये है, ज्ञान- मे अब भी वे उतने ही बल से स्वीकार किये जा रहे है जितने बल से कि वह प्रमुख अंग। वचनो मे मुख्य पर अधिक जोर दिया जा रहा है और इस लिये बाहर मे ऐसा दिखाई देने लगता है, मानो यही अंग इसे स्वीकार है, अन्य नही। पर ज्ञान मे ऐसा होने नही पाता । यदि ज्ञान मे भी ऐसा हो जाये तो वह नय नय नही रहती, उसे नयाभास व मिथ्यानय या मिथ्या एकात कहते है । परन्तु यह उसी समय सम्भव है जबकि प्रमाण ज्ञान रूप अखड चित्रण हृदय पट पर हो । अतः मुख्यता व गौणता का अर्थ सद्भाव व अभाव नही बल्कि दीनों का सद्भाव है, और समान शक्ति रूप से सद्भाव है-जैसे कि दीपक मे अग्नि का प्रकाश मुख्य हो जाने पर भी ज्ञान में पाचकता का कोई कम महत्व नहीं हो जाता । प्रमान ज्ञान त्रिकाली वस्तु के अनुरूप होता है । वस्तु मे कोई गुण मुख्य या या गौण नहीं होता। वहा तो सारे ही मुख्य है । मुख्यता गौणाता तो रागी प्राणी का, स्वार्थ वश उत्पन्न किया गया मानसिक विकल्प है । इसलिये वस्तु के अनुरूप प्रमाण ज्ञान मे भी मुख्यता गौणता नही होती । वहा सब अग समान रूप से प्रमुख है । उसमे सर्व अगों की प्रमुखता रहने पर ही नय रूप मुख्यता की अपेक्षा का प्रयोग सच्चा कहा जा सकता है। अतरग मे भी यदि हीन बल वाली दिखाई दे तो अपेक्षा सच्ची नही होती । इसी का नाम है प्रमाण सापेक्ष नय। तथा सर्व अग अपने-अपने स्थान पर समान शक्ति वाले स्वीकार करने पर ही उस प्रमुख अग का अपने पड़ोसी अन्य अगो के साथ सहयोग रहना सम्भव है, अन्यथा नही । एक अग की सुनते समय उससे विरोधी अग की स्वीकृति को बराबर हृदय पट पर चित्रित देखते रहने को ही नयों की परस्पर सापेक्षता कहता है । नय की प्रमाण से सापेक्षता और मय की नय से सापेक्षता इस प्रकार सापेक्षता दो प्रकार की हो जाती है । अपेक्षा या नय की स्पष्ट बताये बिना, 'किसी अपेक्षा से भगवान पापी भी है'
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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