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________________ 8 नय की स्थापना १७१ २ नय का लक्षण गधे का भार है । चारित्रधार वही अमृत व जीवन का सार है। त्याग कर व साम्यता धारने का अभ्यास कर" । क्या यहां जिन वाणी की अविनय करना अभीष्ट है। नही परन्तु सर्वत्र श्रोता को ऊंचे उठाने का ही मात्र प्रयोजन है । परन्तु इस प्रयोजन से अनभिज्ञ आप मेरे वक्तव्यों का उल्टा अर्थ समझकर झुझलाने लगते है । चर्चा करने लगते हैं कि यह तो भ्रष्टाचारी है । भगवान को पापी कहते नही हिचकता, वाणी की अविनय करते हुये नही डरता । बस एक अपनी स्वतंत्रता स्वतंत्रता के राग अलापता है । यही तो स्वच्छन्दता के लक्षण हैं। "चारित्र का निषेध सुनकर भी इसी प्रकार आप बौखला उठते हो और मुझ से लड़ने लगते हो, परन्तु ज्ञान का निषेध सुनकर तुम्हे कुछ हर्ष सा होने लगता है। इसका क्या कारण ? केवल यही कि आपको 'नयज्ञान' नही है । भले ही निश्चय व्यवहार आदि नयों के नाम याद किये हो । और उन्हें प्रयोग भी करते हों, पर वह केवल कथन मात्र है, प्रयोजन शून्य है, अन्धे के तीर वत् है । प्रभों ! अपने कल्याण को दृष्टि मे रखकर तथा स्वयं अपने जीवन को उन्नत करने के लिये अपनी भूल सुनकर चिडना अब छोड दे । यह चिड़चिड़ाहट तेरे ही लिये बाधक है, मेरे लिये नही । ले अब नय का लक्षण व स्वामित्व दर्शाता हूँ । निर्णय करने का प्रयप्न कर । उपरोक्त प्रकार प्रयोजन वश, वस्तु के सम्पूर्ण त्रिकाली अंगो के २ नय का प्रमाण ज्ञान रूप चित्रण मे से, कोई एक अग को बाहर लक्षण - निकालकर कहने की जो यह पद्धति दर्शाई गई है, इसी को नय वाद कहते है। इस बात को इस प्रकार भी कहने मे आता है कि भाई | मैने यह बात इस प्रयोजन या अभिप्राय से कही है। किसी को गलत फहमी उत्पन्न हो जाने पर आप लौकिक क्षेत्र मे भी तो उसे समझाने के तथा गलत फहमी दूर करने के लिये यही बात कहते हो।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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