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________________ .5 'नय की स्थापना १६९ १ वक्ता का प्रयोजन विकल्प होता है, और दीपक जलाते समय उसमे हाथ सैकने का विकल्प आपको उत्पन्न नही होता । भले आपको ज्ञान मे सब कुछ स्वीकार है, पर यदि पाकशाला मे जाकर में आप से पूछ तो आप यही कहेंगे कि "देखो अग्नि की कृपा जो हम आज भोजन पकाने में सफल हो गये है, अग्नि का पाचकगुण महान् है ।" और इसी प्रकार दीपक के निकट ले जाकर पूछूतो आप कहेगे कि “इसका प्रकाशगुण महान् है।" बस इसे ही कहते है वक्ता का प्रयोजन या मुख्य गौण व्यवस्था । जो कुछ भी उस समय वक्ता का अपना स्वार्थ या प्रयोजन होता है, वह उसी के अनुरूप अंग को प्रमुखत ज्ञान मे से निकालकर विचारता या बात करता है । दीपक जलाते हुये यदि दाहकता की मुख्यता रहे तो घर में आग लगने के भय से दीपक कभी न जला पाये। किसी अंग की मुख्यता के आधार पर ही किसी कार्य विशेष की सिद्धी हुआ करती है, और किसी अग की मुख्यता के आधार पर ही वचन ऋम का निकलना सम्भव है । ऊपर के दृष्टान्त पर से कार्य की सिद्धि वश प्रमुखता दर्शाई गई । अब वचन क्रम में आने वाली प्रमुखता भी देखिये । वक्ता कौनसे अंग को किस समय प्रमुख बना कर कथन करे यह बात उसके अपने प्रयोजन मे छिपी हुई है, और यह प्रयोजन उसके अन्दर श्रोता को देखकर उत्पन्न होता है । श्रोता मे वह जिस अग की कमी देखता है उस समय वह उसी अग को मुख्य करके कथन करने लगता है। भले उस पर श्रोता को दृढ करने के लिये उसे उसके अतिरिक्त शेष अंगों का उस समय निषेध ही क्यों न करना पड़े। परन्तु बाहर मे दीखने वाला वह निषेध निषेध नहीं होता, क्योंकि ज्ञान मे उसका बराबर स्वीकार पड़ा रहता है । जैसे किसी निराश श्रोता को देखने पर, जोकि यह कह रहा हो कि "बस जी रहने दो, यह धर्म की बात मुझ पापी को सुननी भी
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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