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________________ ७ आत्मा व उसके अग _ १२८ ७. क्षायिकादि चार भाव इसी प्रकार एक क्षण को हित का भान होने पर "अरे अरे ? यही मेरे लिये हितकर है यह अन्य सब तो मेरे शत्र है, ,'इस प्रकार का भाव जागृत होकर भी अन्य काम धन्धों में फंसने पर उसे भूल जाना यह क्षणिक पूर्ण शुद्ध भाव है । और अर्ह त भगवान मे प्रगटी वीतरागता अब कभी नष्ट न होगी यह स्थायी पूर्ण श द्ध भाव है । आगम भाषा मे क्षणिक शुद्ध भाव को औपशमिक भाव कहते है, स्थायी ७. क्षायिकादि पूर्ण शद्ध भाव को क्षायिक भाव कहते हैं। पूर्ण अशुद्ध चार भाव, भाव को औदयिक भाव कहते है ओर शुद्धाशुद्ध भाव को क्षायोपशमिक भाव कहते है। यह चारों ही भाव तो अनुभव में आने वाली व्यक्ति या पर्याय है । क्योंकि उत्पन्न होती तथा विनाश पाती है । चारो ज्ञानादि गुणों मे यथा योग्य रीतयः इन चारों भावो मे से सारे या कुछ पाये जाने सम्भव है । जैसे चारित्र व श्रद्धा तो ऐसे गुण है जो क्षण भर अत्यन्त निर्मलता रूप से प्रगट होकर पुनः मलिन हो जाये । पर ज्ञान व वेदना मे ऐसा नही होता । ज्ञान यदि एक बार पूर्ण हो जाये तो फिर हीन होने का काम नहीं जैसा कि देखने मे भी आता है, कि जानी हुई वस्तु भुलाने से भी नहीं भूलती, अत. उसमें क्षणिक शुध्दता नहीं होती, होती है तो स्थायी ही होती है और इसी प्रकार वेदना या सुख मे भी समझना । अत. चारित्र व श्रद्धा तो क्षायिक, औपशमिक, औदयिक व क्षायोपशमिक चारो प्रकार से रह सकती है, पर ज्ञान व वेदना या सुख केवल तीन प्रकार से । वे औपशमिक नहीं होते। आत्म के इन चारो भावो मे कोई तो ऐसा है जो सादि सान्त है । कोई अनादि सान्त है, कोई सादि अनन्त है । पर अनादि अनन्त कोई नही है । अथात् कोई भाव तो ऐसा है कि वह पहिले तो था नही फिर उत्पन्न हो गया, फिर विनष्ट हो गया फिर कुछ समय पश्चात उत्पन्न हो गया । अर्थात जिस का आदि भी हो ओर अन्त भी हो वह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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