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________________ प्राचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण ४७५ से प्रेरित होकर आप देहलीसे मधुवन तकका लम्बा मार्ग तयकर श्री पाचप्रभुके पादमूलमें पधारे थे। आप निद्वन्द्व-निरीह वृत्तिके साधु थे। संसारके विषम वातावरणसे दूर थे। आत्मसाधना ही आपका लक्ष्य था । ७२ वर्षकी आपकी अवस्था थी फिर भी दैनिक चर्यामे रश्वमात्र भी शिथिलता नहीं आने देते थे। श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा कर आप ईसरी आ गए जिससे सवको प्रसन्नता हुई। वृद्धावस्थाके कारण आपका शरीर दुर्बल हो गया तथा उदर में व्याधि उत्पन्न हो गई जिससे आपका विचार हुआ कि यह मनुष्य शरीर संयमका साधक होनेसे रक्षणीय अवश्य है पर जब रक्षा करते-करते अरक्षित होनेके सम्मुख हो तव उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। .. .. यह विचार कर आपने १२-१०-१६५६ शुक्रवारको समाधिका नियम ले लिया। आपने सब प्रकारके आहार और औषधिका त्याग कर केवल छाछ और जल ग्रहण करनेका नियम रक्खा। उदासीनाश्रमके सब त्यागी गण आपकी वैयावृत्यमे निरन्तर निमग्न रहते थे। श्री प्यारेलालजी भगत भी उस समय ईसरीमे ही थे। अतः आप वैयावृत्यकी पूर्ण देख-रेख रखते थे। हम भी समय समयपर आपको भगवती आराधना सुनाते थे। महाराज बड़ी एकाग्रतासे श्रवण करते थे। महाराजके प्रति श्रद्धा व्यक्त करनेके लिए दिल्लीसे अनेक लोग पधारे। आस-पासके भी अनेक महानुभाव आये। सेठ गजराजजी गंगवाल भी सकुटुम्ब आकर आपकी परिचर्याम निमग्न थे। महाराज तेरापन्थी कोठीमें ठहरे थे। मैं आपके दर्शनके लिए गया। चलते-चलते मेरी श्वास भर आई। यह देख महाराज बोले- आपने क्यों कष्ट किया ? आप तो हमारे हृदयमे विद्यमान हैं। अनम्तर सवकी सलाहसे उन्हे उदासीनाप्रममे ले आये और सरस्वतीभवनमे ठहरा दिया। इस समय आपने अपने उपरसे
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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