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________________ ४५८ मेरी जीवन गाथा प्रभावशाली ब्रिटेन भी उनके प्रभावमे आगया तथा विना किसी शतके भारतको त्याग कर स्वदेश चला गया। इतना त्याग जगत्की एक अपूर्व घटना है। एक दिन (कार्तिक कृष्णा ७ ) नालन्दा वौद्ध विद्यालयके अधिष्ठाता मिले। बहुत शिष्ट पुरुष हैं। आपका जैनदर्शनमें अनुराग है । आपकी अन्तरङ्ग इच्छा है कि नालन्दामें भी जैनदर्शनके अध्यापनादि कार्य हों और इसके लिए वहाँ १ जैन विद्यालय खोला जावे । ऐसा करनेसे परस्पर आदान प्रदान होगा जिससे छात्रोंको तुलनात्मक अध्ययन करनेका अवसर अनायास मिल सकेगा। आत्मा ज्ञानी है अतः वह सत्यको ग्रहण करेगी और असत्यको छोड़ देगी । उक्त महानुभावकी उक्त बात हमें रुचिकर हुई । विचार लें तो पैसेवालोंको कार्य कठिन नहीं। विचार प्रवाह गयामे कुछ विचार दैनंदिनीके पृष्ठोंपर अंकित किये थे उन्हें यहाँ दे रहा हूँ 'वही मनुष्य सुखका पात्र होता है जो विश्वको अपना नहीं मानता । परको अपना मानना ही संसारकी जड़ है।' ___'यह केवल कहनेकी बात है कि नश्वर देहसे अविनश्वर सुख मिलता है। सुख तो अत्मिीक गुण है। उसका घातक न तो शरीर है और न द्रव्यान्तर । यह आत्मा स्वयं रागादिरूप परिणमनकर स्वयं आकुलतारूप दुःखका भोक्ता होता है और जब रागादि परिणामोंसे पृथक् अपनी परिणतिका अनुभव करता है तभी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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