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________________ अलीगढ़का वैभव ३१ नियम था कि हाथसे उपार्जन किया ही मेरा धन है पराया धन न जाने अन्यायोपार्जित हो तथा मैं किसीके प्राण नहीं दुखाना चाहता । हम यहाँ पुरसानकी धर्मशालामे ठहर गये । यह धर्मशाला एक वाल शाहकी है बहुत ही सज्जन हैं, अतिथि सत्कार मे अच्छी प्रवृत्ति है, मन्दिर भी बना है, रामचन्द्रजी का उपासक है, अनेक भाई दर्शनके लिये आते हैं, यहाँका जमादार भलामानुष है । यहॉ से = मील चलकर हाथरस पहुँचे । यहाँ पर ६ मन्दिर हैं । १ मन्दिर चहुत वडा है जिसका निर्माण वहुत ही सुन्दर रीतिसे हुआ है इसकी कुरसी बहुत ऊँची है । यहाँ पर मनुष्य बहुत ही सज्जन हैं । यहाँ कन्यापाठशालामे ठहरे किन्तु स्थान संकीर्ण था । लघुशंकाके लिये स्थान ठीक नहीं था, नालीमे पानी जाता था जो आगम विरुद्ध है। भोजनके अर्थ श्रावकों के घर जाते थे परन्तु मार्ग निर्मल नहीं प्रायः शुचिका सम्बन्ध मार्गमे बहुत रहता है । नये मन्दिरमें सभा हुई। बाहरसे आये हुए विद्वानोंके व्याख्यान मनोरञ्जक थे। थोडा-सा समय हमने भी दिया । व्याख्यान श्रवण कर मनुष्योंके चित्त द्रवीभूत हो गये तथा मनमे श्रद्धा विशेष हो गई। श्रद्धा कितनी ही दृढ़ क्यों न हो किन्तु आचारणके पालन विना केवल श्रद्धा अर्थकरी नहीं । श्रद्धाके अनुरूप ज्ञान भी हो परन्तु आचरणके बिना वह श्रद्धा और ज्ञान स्वकार्य करनेमे समर्थ नहीं । हाथरससे सासनी ७ मील था । लगातार चलनेसे थक गये, ज्वर आ गया । श्री छेदीलालजीके आग्रहसे सासनी आये थे । इनके पिता बहुत ही धर्मात्मा थे । इनके कॉचका कारखाना है, वहाँ पर इनके पिताका निवास रहता था, आप निरन्तर ईसरी आते रहते थे, धार्मिक मनुष्य थे, आपकी धर्मरुचि बहुत ही प्रशस्त थी । ईसरी आश्रम मे जितने गेहूं व्यय होते थे सव आप देते थे । अव आपका स्वर्गवास हो गया है । आपके छेदीलाल और उनके लघुभ्राता इस
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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