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________________ ४३२ मेरी जीवन गाथा प्रातः ५ मील चल कर वावाजीकी कुटियामें ठहर गये। यहीं पर भोजन किया। विचारमें यह आया कि गिरिराज पहुंचकर धर्मसाधन करना। परसे न शान्ति मिलती है और न मिलनेकी संभावना है। हम अनादिसे परके साथ अपना अस्तित्व मान रहे हैं। फल उसका जो है सो प्रत्यक्ष है। यहाँसे ५३ मील प्रयाण कर एक वावाजीकी कुटियाके सामने आम्रतरुके नीचे निवास किया। यहाँ पर ज्यों ही भोजन बनानेका प्रारम्भ हुआ त्यों ही ग्रामीण मनुप्य बहुत आ गये, मना करने पर भी नहीं हटे। अस्तु आज दयाचन्द्रने असत्य भाषण कर अभक्ष्य दुग्धका भक्षण करा दिया। यद्यपि मैंने दुग्ध त्याग दिया फिर भी आत्मामें ग्लानि बनी रही। हम लोग बहुत ही तुच्छ प्रकृतिके बन गये हैं, शरीरको ही अपना मान लेते हैं। आत्मद्रव्यको अमूर्तिक कह देना अन्य बात है। उस पर अमल करना अन्य वात है। यहाँसे २३ मील चल कर डवडवा आ गये । रानिमें निवास करनेके बाद प्रातःकाल बडवासे ५ मील चल कर मऊगंजके एक वागमें आम्रवृक्षके नीचे निवास किया। स्थान सुरम्य था। यहीं पर भोजन किया। यहाँ पर परिणामोंमें शान्ति रही। परमार्थसे सङ्गमे शान्ति नहीं रहती। इसका मूल कारण हृदयगत मलिनता है। हम लोग हृदयमें कुछ रखते हैं, कहते कुछ हैं, कायसे कुछ करते हैं। ३६ के अनुरूप हमारा व्यवहार है। इसमे शान्तिकी आशा मृगतृष्णामें सलिलान्वेषणके तुल्य है। भोजनके उपरान्त स्कूलमें निवास किया। मास्टर योग्य थे। ४ बजे यहाँसेचले। घड़ी भूल आये।४ मील चलनेके बाद १ मिडिल स्कूलमें ठहर गये। यहाँ पर शान्तिसे रात्रि काटी। स्कूलमे २५ छात्र देहातके अध्ययन करते हैं। मास्टर लोग पढ़ाई अच्छी करते हैं। प्रार्थना होती है। सभ्यताकी ओर लक्ष्य है परन्तु सभ्यता पश्चिमी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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