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________________ ४०२ मेरी जीवन गाथा है तब ये तहसीलदारकी आरजू मिन्नत करते हैं इसलिये इनसे बडा तो तहसीलदार है, वही क्यों न बन जाऊँ ? इस तरह विचार कर वह तहसीलदार बननेकी आकांक्षा करने लगा। कुछ देर बाद उसे जिलाधीशका स्मरण आया तो उसके सामने तहसीलदारका पद फीका दिखने लगा। इस प्रकार एकके वाद एक इच्छाएं बढ़ती गई और वह निर्णय नहीं कर पाया कि क्या माँगा जाय । सारी रात्रि विचार करते करते निकल गई। सवेरा हुआ, महादेवजी ने पूछाबोल क्या चाहता है ? वह उत्तर देता है-महाराज ! कुछ नहीं चाहिये । क्यों ? क्यों क्या, जब पासमे संपत्ति आई नही, आनेकी आशामात्र दिखी तब तो रात्रिभर नींद नहीं। यदि कदाचित् आ गई तो फिर नींद तो एकदम विदा हो जायगी इसलिये महाराज मैं जैसा हूँ वैसा ही अच्छा है। उदाहरण है अतः इससे सार ग्रहण कीजिये । सार इतना ही है कि परिग्रह जञ्जालका कारण है अतः इससे निवृत्त होनेका प्रयत्न करना चाहिये। नवम अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका वर्णन आपने सुना है। वास्तवमे विचार करो तो मोक्षके साधक ये दो ही तत्व हैं। नवीन कर्मोंका आस्रव रुक जाय यही संवर है और पूर्ववद्ध कर्मोंका क्रम-क्रमसे खिर जाना निर्जरा है । संवर गुप्ति, लमिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिपहजय और चारित्रके द्वारा होता है । उन कारणोंमे प्राचार्य महाराजने सर्वसे प्रथम गुप्तिका उल्लेग्य किया है । समस्त प्रास्त्रवोंका मूल कारण योग है। यदि योगी पर नियन्त्रण हो गया तो आस्रव अपने आप क जावेंगे । इस तरह गुप्ति ही महासंवर है परन्तु गुप्तिका प्राप्त होना सहज नहीं । गुप्तिरूप अवस्था सतत नहीं हो सकती अतः उसके अभावम प्रवृत्ति करना पड़ती है तब प्राचार्यने आदेश दिया कि भाई यदि प्रवृत्ति ही करना है तो प्रमाद रहित प्रवृत्ति करो। प्रमाद हिन
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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