SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० मेरी जीवन गाथा इस परिग्रहकी छीना-झपटीमे मनुष्य भाई भाईका, पुत्र पिताका और पिता पुत्र तकका घात करता सुना गया है। इसके दुर्गुणोंकी ओर जब दृष्टि जाती है तब शरीरमे रोमाञ्च उठ आते हैं। चक्रवर्ती भरत ने अपने भाई बाहुबलिके ऊपर चक्र चला दिया। किसलिए ? पैसेके लिये | क्या वे यह नहीं सोच सकते थे कि आखिर यह भी तो उसी पिताकी सन्तान है जिसकी मै हूँ। यह एक न वशमें हुआ न सही, पट्खण्डके समस्त मानव तो वशमे आगये-आज्ञाकारी होगये पर वहाँ तो भूत मोहका सवार था इसलिए संतोष कैसे हो सकता था ? वे मन्त्रियों द्वारा निर्णीत दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्ल युद्धमे पराजित होनेपर भी उबल पड़े-रोपमे आगये और भाईपर चक्ररत्न चलाकर शान्त हुए। उस समयके मंत्रियोंकी बुद्धिमानी देखो। वे समझते थे कि ये दोनों भाई चरमशरीरी-मोक्षगामी हैं। इनमेसे एकका भी विघात होनेका नहीं। यदि सेनाका युद्ध होता है तो हजारों निरपराध व्यक्ति मारे जावेंगे इसलिये अपनी बलवत्ताका निर्णय ये दोनों अपने ही युद्धोंसे करें और युद्ध भी कैसे, जिनमे घातक शस्त्रोंका नाम भी नहीं ? यह उस समयके मन्त्री थे और आजके मन्त्रियोकी बात देखो। आप घरमेसे बाहर नहीं निकलेंगे पर निरपराध प्रजाले लाखों मानवोंका विध्वंस करा देंगे। कौरव और पाण्डवोंका युद्ध किंनिमित्तक था ? इसी परिग्रह निमित्तक तो था । कौरव अधिक थे इसलिए सम्पत्तिका अधिक भाग चाहते थे। पाण्डव यदि यह सोच लेते कि हम थोड़े हैं अतः हमारा काम थोड़ेसे ही चल सकता है। अर्ध भागकी हमें आवश्यकता नहीं है तो क्या महाभारत होता ? नहीं, पर उन्हें तो आधा भाग चाहिये था। कितने निरपराध सैनिकोंका विनाश हुआ इस ओर दृष्टि नहीं गई। जावे कैसे परिग्रहका आवरण नेत्रके ऊपर ऐसी पट्टी बाँध देता है कि वह पदार्थका सही रूप देख ही नहीं पाता।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy