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________________ ३६० मेरी जीवन गाथा मुनिका इसलिये हुआ कि आहार पाकर उसके औदारिक शरीरमें स्थिरता आई जिससे वह रत्नत्रयकी वृद्धि करनेमे समर्थ हुआ। मुनि अपने उपदेशसे अनेक जीवोंको सुमार्ग पर लगावेंगे इस दृष्टिसे अनेक जीवोका कल्याण हुआ। इस तरह विचार करनेपर त्यागधर्म अत्यधिक स्वपर कल्याणकारी जान पड़ता है। मुनि अपने पदके अनुकूल निश्चय त्यागधर्मका पालन करते हैं और गृहस्थ वाह्य त्यागधर्मका पालन करते हैं। इतना निश्चत है कि संसारका समस्त व्यवहार त्यागसे ही चल रहा है । अन्यथा जिसके पास जो है वह किसीके लिए कुछ न दे तो क्या संसारका व्यवहार चल जावेगा? एक बार एक साधु नदीके किनारे पहुंचा। दूसरी पार जानेके लिए नाव लगती थी। नावका किराया दो पैसा था। साधुके पास पैसाका अभाव था इसलिए वह नदीके इस पार ही ठहरनेका उद्यम करने लगा। इतनेमे एक सेठ आया, वोला-वावाजी | रात्रिको यहाँ कहाँ ठहरेगें । उस अर चलिये, वहाँ ठहरनेका अच्छा स्थान है। साधुने कहा वेटा | नावमे बैठनेके लिए दो पैसा चाहिये । मेरे पास है नहीं अतः यहीं रात्रि वितानेका विचार किया है। सेठने कहा पैसोकी कोई बात नहीं, आप नावपर वैठिये । सेठ और साधुदोनों नाव पर बैठ गये। सेठने चार पैसे नाववालेको दिये । जब नावसे उतरकर दूसरी ओर दोनों पहुँच गये तब सेठने साधुसे कहा वावाजी आप बहुत त्यागका उपदेश देते हो। यदि आपके समान मैंने भी पैसे त्याग दिये होते तो आज क्या दशा होती? अतः त्य,गकी बात छोड़ो । साधुने हँसकर कहा-बेटा! यदि नदी पार हुई है तो चार पैसोंके त्यागसे ही हुई है। यदि तूं ये पैसे अपनी अंटीमे रखे रहता तो यह नाववाला तुमे कभी भी नदीसे पार नहीं उतारता । सेठ चुप रह गया ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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