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________________ पर्व प्रवचनावली ३८१ खुलेगा। दूसरी कुंजीसे दूसरा ताला घंटों परिश्रम करनेपर भी नहीं खल सकता और कुंजीका ठीक ठीक बोध हो जानेपर जरासी देरमे खुल जाता है। यही बात यहाँपर है। जो कर्म जिस भावसे आता है उन भावके विरुद्ध भाव जब आत्मामें उत्पन्न हो तब उस कर्मका आना रुक सकता है। आपने सुना है 'सकषायाकषाययो साम्परायिकर्यापथयोः' अर्थात् योग सकपाय जीवोंके साम्परायिक तथा कषायरहित जीवोंके ईर्यापथ आस्रवका कारण है। जिस आस्रवका प्रयोजन संसार है उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं और जिसमे स्थिति तथा अनुभागबन्ध नहीं पड़ता उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। साम्परायिक आस्रव आत्माका अत्यन्त अहित करनेवाला है। यह कषाय सहित जीवके ही होता है। जिस प्रकार शरीरमें तेल लगाकर मिट्टीमें खेलनेवाले पुरुषके मिट्टीका सम्बन्ध सातिशय होता हैं और तेल रहित मनुष्यके नाममात्रका होता है उसी प्रकार कषाय सहित जीवका आस्रव सातिशय होता है-स्थिति और अनुभागसे सहित होता है परन्तु कषाय रहित जीवके नाममात्रका होता है। अर्थात् समयमात्र स्थित रहकर निर्जीर्ण हो जानेवाले कर्मप्रदेशोंका आस्रव उसके होता है । इस तरह आत्माकी सकषाय अवस्था ही आस्रव है-बन्धका कारण है अतः उससे वचना चाहिये । जिस प्रकार फिटकली आदिके संसर्गसे जो वस्त्र सकपाय हो गया है उसपर रंगका सम्बन्ध अच्छा होता है परन्तु जो वस्त्र फिटकली आदिके संसर्गसे रहित होनेके कारण अकपाय हैं उसपर रका सम्बन्ध स्थायी नहीं होता उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये। नामकर्मकी ६३ प्रकृतियोंसे तीर्थकर प्रकृति सातिशय पुण्यप्रकृति है इसलिये उसके आस्रव आचार्यने अलगसे बतलाये हैं। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंके चिन्तनसे उसका वास्तव
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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