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________________ पर्व प्रवचनावली ३७३ अपने आप अतिशय कर चकचकायमान हो रहा है । कैसा है ? अनादि है । कोई इसका उत्पादक नहीं अतएव अनादि है, अतएव कारण है । जो वस्तु अनादि अकारणक है वह अनन्त भी है तथा अचल है ऐसे अनादि, अनन्त तथा अचल अजीव द्रव्य भी है, इससे इसका लक्षण स्वसंवेद्य भी है यह स्पष्ट है । जीव नामक पदार्थमे अन्य अजीवोंकी अपेक्षा चेतनागुण ही भेद करनेवाला है । वही गुण इसमें ऐसा विशद है कि सर्व पदार्थोंकी तथा निजकी व्यवस्था कर रहा है | इस गुणको सब मानते हैं परन्तु कोई उस गुणको जीवसे सर्वथा भिन्न मानते हैं । कोई गुणसे अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहींगुणा-गुणी सर्वथा एक हैं ऐसा मानते हैं । कोई चेतना तो जीवमें मानते हैं परन्तु वह ज्ञेयाकार परिच्छेद से पराङ्मुख रहता है ऐसा अङ्गीकार करते हैं । प्रकृति और पुरुषके सम्वन्धसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसमें चेतनाके संसर्गसे जानपना आता है । कोईका कहना है कि पदार्थ नाना नहीं एक ही अद्वैत तत्त्व है । वह जब मायाच्छन्न होता है तब यह संसार होता है । किसीका कहना है कि जीव नामक स्वतन्त्र पदार्थकी सत्ता नहीं किन्तु पृथिवी जल अग्नि वायु और आकाश इनकी जिस समय रिलक्षण अवस्था होती है उसा समय यह जीवरूप अवस्था होजाती है । ये जितने मत हैं वे सर्वथा मिथ्या नहीं | जैनदर्शनमें अनन्त गुणोंका जो विष्वभाव सम्बन्ध है वही तो द्रव्य है । वह आत्मीय स्वरूपकी अपेक्षा भिन्न भिन्न है परन्तु कोई ऐसा उपाय नहीं कि उनमे से एक भी गुण पृथक् हो सके । जैसे पुद्गल द्रव्यमें रूप रस गन्ध स्पर्श गुण हैं । चक्षुरादि इन्द्रियोंसे पृथक् पृथक् ज्ञानमें- आते हैं परन्तु उनमें से कोई पृथक् करना चाहे तो नहीं कर सकता । वे सब अखण्डरूपसे विद्यमान हैं । उन सर्व गुणोंकी जो अभिन्न प्रदेशता है उसीका नाम
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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