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________________ ३७० मेरी जीवन गाथा वह है उससे अन्यरूप मानना असत्य है । शरीर पुद्गल द्रव्यका विकार है। उसे आत्मद्रव्य मानना मिथ्या है। यह विपरीत मान्यता मिथ्यात्वके कारण उत्पन्न होती है इसलिये सर्व प्रथम उसे ही त्यागना चाहिये । पञ्चमाध्यायमे षड् द्रव्योंका वर्णन आपने सुना है । उसमे प्रमुन्न जीवद्रव्य है। उसीका सब खेल है, वैभव है श्रहं प्रत्ययवेद्यत्वान्जीवस्यास्तित्वमन्वयात् । __ 'एको दरिद्र एक: श्रीमानिति च कर्मणः ॥ 'मैं सुखी है. दखी है इत्यादि प्रत्ययसे जीवके अस्तित्वका साक्षात्कार होता है तथा अन्वयसे भी इसका प्रत्यय होता है। यह वही देवदत्त है जिसे मैंने मथुराम देखा था, अब यहाँ देख रहा हूँ। इस प्रत्ययसे भी आत्माके आस्तित्वका निर्णय होता है तथा कोई तो श्रीमान् देखा जाता है और कोई दारिद्र देखा जाता है इस विभिन्नतामें भी कोई कारण होना चाहिये। यह विभिनताविषमता निर्हेतुक नहीं। जो हेतु है उमीको कर्म नाममे का जाता है। नाममे विवाद नहीं चाहं कर्म कहो, अनारो, ईश्वर कहो, खुदा कहो, विधाता कहो, जो 'प्रापको विकर। परन्तु यह अवश्य मानना कि यह विभिन्नता निर्मूल नहीं। राव ही यह भी मानना पड़ेगा कि जो यह दृश्यमान जगत है या एक जीवका परिणाम नहीं। केरत एक पदार्थ हो ना नानात्व कहाँमे पाया ? नानाला नियामक द्रव्यात im चाहिये । केवल पुद्गलमे शट बन्धादि पायें नहीं की। जब पुद्गल परमाणुयोंकी बल्यावस्था हो आनी भी र पनायें होती । उस वास्थामै पुदगर परमार नना हव्यापी अगाविस रहनी ! ra t
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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