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________________ ३६४ मेरी जीवन गाथा रही हैं ऐसी आत्मारूपी नदीमे हे अर्जुन ! अभिषेक करो क्योंकि पानीमात्र से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती ? आत्माको निर्मल बनाने -का जिसने अभ्यास कर लिया उसने सब कुछ कर लिया । 'आतमके अहित विषय कपाय' - आत्माके सबसे बड़े शत्रु विषय और कषाय हैं । इनसे जिसने अपने आपकी रक्षा कर ली उसने जग जीत लिया, अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लिया । लोभ केवल रुपया पैसाका ही हो सो बात नहीं। मान प्रतिष्ठा आदिकी आकांक्षा रखना भी लोभका ही रूप है । जब रामका -रावणके साथ लङ्कामे युद्ध हो रहा था तब राम रावणको मारते थे तो वह वहुरूपिणी विद्यासे दूसरा रूप वना कर सामने आ जाता था । इसी प्रकार हम लोभको छोड़नेका प्रयत्न करते हैं । घर गृहस्थी, वाल बच्चे छोड़ कर जंगलमें जाते हैं पर वहाँ शिष्य संग्रह. "धर्म प्रचार आदिका लोभ सामने आ जाता है । पहले घरके कुछ लोगोंके भरण-पोषणका ही लोभ था व अनेकों शिष्योंके भरणपोरण तथा शिक्षा-दीक्षा आदिका लोभ सामने आ गया। लोभ नष्ट कहाँ हुआ ? वह तो वेष बदल कर आपके सामने आ गया है । यदि वास्तवमे लोभ नष्ट हो जाता तो इस परिकरकी क्या आवश्यकता थी ? 'इसका कल्याण करूँ, उसका कल्याण करूँ' -यह विकल्पजाल निरन्तर आत्मामे क्यों उठते ? अतः प्रयत्न ऐसा -करो कि जिससे यह लोभ समूल नष्ट हो जाय । एक रोग छूटने के बाद यदि दूसरा रोग दवाईसे होता है तो वह दवाई दवाई नहीं । दवाई तो वह है जिससे वर्तमान रोग नष्ट हो जाय और उसके वदले कोई दूसरा रोग उत्पन्न न हो । विपय कपायका सेवन करते करते अनन्त काल वीत गया पर श्रात्मामें संतोष उत्पन्न नहीं हुआ । उससे जान पड़ता है कि यह सब संतोषके मार्ग नहीं हैं । - समन्तभद्र स्वामीने कहा है
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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