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________________ २२ मेरी जीवन गाथा वन्ध होता है वह मिथ्यात्वके साथमे जैसा होता था वैसा नहीं होता । अतः जहाँ तक वने विपरीत अभिप्रायको दूर करनेका बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करो । विना निर्मल अभिप्रायके कल्याण होना असंभव है। कल्याणका विघातक मलिन अभिप्राय ही है । यद्यपि इसका निर्वचन होना कठिन है फिर भी पर पदार्थमे जो निजत्व कल्पना होती है। वही इसका कार्य हैं वही विपरीत अभिप्राय है। इसीसे असत्कल्पनाएं होती है। इसीके रहते आत्मा किसीमे राग, किसीम द्वेप और किसीमें उपेक्षा करता है। इस कार्यसे इसे पहिचान कर इसके छोड़नेका प्रयत्न करो। समस्त संसारी जीवोके मन वचन कायके व्यापार स्वयमेव होते रहते हैं। ये ही व्यापार जब मन्द कपायके साथ हो तो शुभ कहलाते हैं और शुभास्त्रवके हेतु भी हो जाते है और तीव्र कपायके साथ हों तो अशुभ शब्दसे कहे जाते हैं और अशुभ आस्रवके कारण होते हैं। इस प्रकार यह परम्परा अनादि कालसे चली आती है। कदाचित् सम्यग्दर्शन न हो और मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का मन्द उदय हो तो द्रव्यलिड्न हो जाता है परन्तु वह द्रव्यलिङ्ग अनन्त संसारका घातक नहीं। यद्यपि द्रव्यलिङ्ग आर भावलिङ्गके बाह्य आचरणमें कोई अन्तर नहीं रहता फिर भी इनके कार्यमे प्रचुर अन्तर हो जाता है। द्रव्यलिङ्गसे पुण्य वन्ध होता है अर्थात् अघातिया कर्मोंमें जो पुण्य प्रकृतियाँ हैं उनका विशेप वन्ध होता है परन्तु घातिया कर्मोंकी जो पाप प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध नहीं रुकता। कोमे घातिया कर्म जो हैं वे सब पाप रूप ही हैं उनम सर्व आपत्तियोंकी जड़ मोह ( मिथ्यात्व ) है। इसकी सत्ता स्वयं अपने अस्तित्वकी रक्षा करती है और शेप घातिया व अघातिया कर्मोकी सत्ता रखती है। इसके अभावमै शेप कर्माका अस्तित्व सेनापतिके अभावमे सेनाके अस्तित्व तुल्य रह जाता है। वृक्षका जड़ उखड़ जाने पर उसके हरापनका अस्तित्व कितने काल तक
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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