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________________ ३४६ मेरी जीवन गाथा है। छात्रोंने कहा मैं अभी वैद्य लाता हूँ, ठीक हो जावेगा। गुरुले कहा वेटो ! यह वैद्यसे अच्छा नहीं होता-एक बार पहले भी मुझे हुआ था। तब मेरे पिताने इसे चूसकर अच्छा किया था, यह चूसने ही से अच्छा हो सकता है। मवादसे भरा फोड़ा कौन चूसे ? सब ठिठक कर रह गये। इतनेमे वह छात्र आ गया जिसकी गुरु बहुत प्रशंसा किया करते थे। आकर बोला-गुरु जी क्या कष्ट है ? वेटा ! फोड़ा है, चूसनेसे ही अच्छा होगा "गुरु ने कहा। गुरुजीके कहनेकी देर थी कि उस छात्रने उसे अपने मुहमें ले लिया। फोड़ा तो था ही नहीं आम था। पण्डितान को अपने पतिके वचनोपर विश्वास हुआ । आजका छात्र तो गुरुको नौकर समझ उसका बहुत ही अनादर करता है। यही कारण है कि उसके हृदयमे विद्याका वास्तविक प्रवेश नहीं हो रहा है। क्या कहे आजकी बात ? आज तो विनय रह ही नहीं गया। सभी अपने आपको बड़ेसे बड़ा अनुभव करते हैं। मेरा मान नहीं चला जाय इसकी फिकरमे सब पड़े हैं पर इस तरह किसका मान रहा है ? आप किसीको हाथ जोड़कर या शिर झुकाकर उसका उपकार नहीं करते बल्कि अपने हृदयसे मान रूपी शत्रुको हराकर अपने आपका उपकार करते हैं। किसीने किसीकी बात मान ली, उसे हाथ जोड़ लिये, शिर झुका दिया उतने से ही वह खुश हो जाता है और कहता है कि इसने हमारा मान रख लिया। अरे मान रख क्या लिया ? अपि तो खो दिया। आपके हृदयमे जो अहंकार था उसने उसे अपनी शारीरिक क्रियासे दूर कर दिया ? दिल्लीमे पञ्च कल्याणक हुआ था। पञ्चकल्याणकके बाद लाडू बाँटनेकी पृथा वहाँ थी। लाला हरसुखरायजीने नौकरके हाथ सबके घर लाडू भेजा, लोगोंने सानन्द लाडू ले लिया पर एक गरीब आदमीने जो चना गुड़ आदिकी दुकान किये था यह विचार
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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