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________________ मेरी जीवन गाथा होता है। उस समय यदि तीव्र राग हुआ तो यह आत्मा विपयोंके साधक स्त्री पुत्रादि तथा अन्य अनुकूल पुद्गलोंमे राग करने लगता है और निरन्तर उन्हीं पदार्थों के साथ रुचि रखता है । यदि मन्द राग हुआ तो पञ्च-परमेष्ठीमे अनुराग करनेका व्यापार करना है तथा प्राणियों पर दया करनेकी परिणति करता है। तीर्थ क्षेत्रादि पर जानेकी चेष्टा करता है, पासमे यदि द्रव्यादि हुआ तो उसे परोपकारमे लगाता है। परमार्थसे पर पदार्थोंने आदान प्रदानकी जो पद्धति है वह सर्व मोहजन्य परिणामोंकी चेष्टा है। क्योंकि जो वस्तु हमारी है ही नहीं उसे दान करनेका हमे अधिकार ही क्या है तथा जो वस्तु हमारी हैं उसे हम दे ही नहीं सकते। हमारी वस्तु हमसे अभिन्न रहेगी अत. हम उसका त्याग नहीं कर सकते। जैसे वर्तमानमे हमारी आत्मामे क्रोधका परिणमन हुआ उस समय क्षमादिकका तो अभाव है-क्रोधमय हम हो रहे हैं वही हमारा स्वरूप है, क्योकि द्रव्य विना परिणामके रह नहीं सकता। क्षमाका उस कालमे अभाव है अतः जिसकालमें आत्मा क्रोधरूप होता है उस कालमे क्रोध ही है। एक गुणका एक कालमे एक रूप ही तो परिणमन होगा। परन्तु उस समय भी जो विवेकी मनुप्य हैं वे उसे वैभाविक परिणति मान कर श्रद्धामे उससे विरक्त रहते हैंयही उसका त्यागना है। देखा जाता है कि गुरु महाराज शिष्यके ऊपर क्रोध भी करते हैं ताड़ना भी करते हैं, परन्तु अभिप्राय ताड़ना का नहीं है । इसी तरह ज्ञानी जीवको कर्मोदयमे नाना प्रकारके भाव होते हैं परन्तु अन्तरगमे श्रद्धा निर्मल होनेसे उसे करना नहीं चाहते जिस प्रकार जब मनुप्य मलेरिया ज्वरसे पीड़ित होता है तब वह वैद्य द्वारा वतलायी हुई कटुकसे कटुक औपधिका सेवन करता है परन्तु अन्तरंगमें उसे सेवन करनेकी रुचि नहीं इसी प्रकार ज्ञानी जीव कर्मोदयसे वाह्य पदार्थोंका संग्रह करता है, सेवन भी करता है
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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