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________________ द्रोणगिरि और रेशन्दीगिरि ३१५ मन्दिरमें श्री ऋषभनाथ भगवान्के दर्शन कर चित्तमे अत्यन्त हर्प हुआ। पौष शुक्ला ५ संवत् २००८ को श्री द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्रकी वन्दना की । यद्यपि शारीरिक शक्ति दुर्वल थी तो भी अन्तरङ्गके उत्साहने यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न करा दी। साथमे श्री १०५ क्षुल्लक क्षेमसागरजी व ब्रह्मचारी नाथूराम तथा बालचन्द्र थे। यात्राके बाद गुफाके आगे प्राङ्गणमे शान्त चित्तसे बैठे। सामने गाँवका तथा युगल नदियोंका संगम दिख रहा था। दूर दूर तक फैली हुई खेतोंकी हरियाली दृष्टिको बलात् अपनी ओर आकषित कर रही थी। ७० नाथूरामने प्रश्न किया कि शान्ति तो आत्मासे आती है पर अशान्ति कहाँसे आती है ? इसके उत्तरमे मैंने कहा-शान्तिवत् अशान्ति भी बाहरसे नहीं आती, केवल निमित्तका भेद है। उपादान कारण दोनोंका आत्मा है। जिस तरह समुद्रमे उत्तरङ्ग और निस्तरन अवस्था होती है। उसमें समीरका संचरण और असंचरण निमित्त है। इसी तरह आत्मामें पुद्गल कर्मके विपाकका निमित्त पाकर अशान्ति और उसके अभावशान्तिका लाभ होता है। अतः जिनको शान्तिकी अभिलाषा है उन्हे पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्याग देना चाहिये क्योंकि सुख और शान्ति केवत अवस्थामे ही होती है । परके आधीन रहना सर्वथा दुःखका वीज है। द्रोणगिरिमे पं० गोरेलालजी सज्जन व्यक्ति हैं। द्रोणगिरिसे चलकर भगवाँ गये । यहाँ एक असाटी अच्छे सम्पन्न हैं । सामान्य रीतिसे इनका व्यवहार अच्छा है। यह जैनधर्मसे प्रेम रखते हैं। जव चन्दाका समय होता है तव कुछ न कुछ दे ही देते हैं। यहाँसे चलकर वरेठी पहुँचे । पद्मपुराणका स्वाध्याय किया। रोचक कथा है । यहाँ ६ घर जैनियोंके हैं। सबने यथाशक्ति द्रोणागिरिकी
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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