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________________ तीव्र वेदना कार्तिक कृष्णा ११ सं० २००८ को शारीरिक अवस्था यथोचित नही रही--एक फोड़ा उठनेके कारण कष्ट रहा। फिर भी स्वाध्याय किया। स्वाध्याय थोड़े ही समय हुआ। उसका सार यह था कि मनुष्य अपना हित चाहते हैं परन्तु अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करते। पर पदार्थोके संग्रह करनेमे निरन्तर व्यग्र रहते हैं और इसी व्यरताके आवेगमे पूर्ण आयु व्यय कर देते हैं। कल्याणकी लालसासे मनुप्य परका समागम करता है परन्तु उससे कल्याण तो दूर रहा अकल्याण ही होता है। प्रथम तो परके समागममें अपना समय नष्ट होता है। द्वितीय जिसका समागम होता है उसके अनुकूल प्रवृत्ति करना पड़ती है। अनुकूल प्रवृत्ति न करने पर अन्यको कष्ट देनेकी सम्भावना हो जाती है अतः परका समागम सर्वथा हेय है। जिस समय आत्मा अपनेको जानता है उस समय निज स्वरूप ज्ञान-दर्शनरूप ही तो रहता है। दर्शन-ज्ञानका काम देखना-जानना है। इससे अतिरिक्त मानना आत्माको ठगना है। आत्मा तो ज्ञाता-दृष्टा है। उसे रागी द्वेपी मोही बनाया यह कार्य आत्मासे सर्वथा स्वयमेव नहीं होता। यदि परकी निमित्तता इसमे न मानी जावे तो आत्मा ही उपादान हुआ और आत्मा ही निमित्त । इस दशामे यह सतत होते रहेगे। कभी भी आत्मा इनसे अलिप्त न होगी अतः किसी भी आत्मामे ये जो रागादि भाव हैं वे विकारी भाव हैं। जो विकारी भाव होता है वह निमित्तके दूर होने पर स्वयमेव पृथक् हो जाता है। जैसे
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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