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________________ बरुआसागरसे प्रस्थान २७१ हैं। मायावी आदमी ऊपरसे तो सरल दीखता है और भीतर अत्यन्त वक्र परिणामी होता है। जैसे बगुला ऊपर तो शनैः शनैः पैरों द्वारा गमन करता है और भीतरसे जहाँ मछलीकी आहट सुनी वहीं उसे चोंचसे पकड़ लेता है। मायाचारके वशीभूत होकर जो न करे सो अल्प है । इसी तरह लोभके वशीभूत होनेसे संसारमे जो जो अनर्थ होते हैं वे किसीसे अविदित नहीं। आज सहस्रावधि मनुज्योंका संहार हो रहा है वह लोभकी ही बदौलत तो है । आज एक राज्य दूसरेको हड़पना चाहता है। वर्षोंसे शान्ति परिषद् हो रही हे लाखों रुपया वर्वाद हो गये परन्तु टससे मस नहीं हुआ। शतशः नीतिके विद्वानोंने गंभीर विचार किये । अन्तमें परिग्रही मनुष्योने एक भी विपय निर्णीत न होने दिया-लोभ कषायकी प्रबलता कुछ नहीं होने देती। सव ही मिल जावें परन्तु जब तक अन्तरङ्गमे लोभ विद्यमान है तब तक एक भी वात तय न होगी। राजाओंसे प्रजाका पिण्ड छुड़ाया परन्तु अधिकारी वर्ग ऐसा मिला कि उनसे वदतर दशा मनुष्योंकी हो गई। यह सब लोभकी महिमा है, लोभकी महिमा अपरम्पार है अतः जहाँ तक बने लोभको कृश करो। क्रोध मान माया लोभ ये चार कपाय ही आत्माके सबसे प्रबल शत्रु हैं। इनसे पिण्ड छुड़ानेका प्रयत्न करो। हमें यहाँ रोककर क्या करोगे। ३ माह रोकनेसे तो यह दशा हो गई कि नेत्रोंसे अश्रपात होने लगा अब चार माह और रोकोगे तो क्या होगा। स्नेह दुःखका कारण है अतः उसे दूर करनेका प्रयास करो। इतना कह कर हम चल पड़े लोग बहुत दूर तक भेजने आये। आज वरुवासागरसे चल कर नदी पर विनाम किया।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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