SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरुपासागरसे प्रस्थान २६६ अन्वय और व्यतिरेक दोनोंसे जाना जाता है अतः दोनों ही मुख्य हैं। जब उपादानकी अपेक्षा कथन करते हैं तब घटका उपादान मिट्टी है और निमित्तकी अपेक्षा निरूपण किया जावे तो कुलालादि कारण हैं। यदि इस प्रक्रियाको स्वीकार न करोगे तो कदापि कार्यकी सत्ता न बनेगी। इस विषयमे वाद विवाद कर मस्तिष्कको उन्मत्त बनाने की पद्धति है। इसी प्रकार जो भी कार्य हों उनके उपादन और निमित्त देखो, व्यर्थके विवादमे न पड़ो। निमित्तमे ही यह प्राणी न उलझ जाय कुछ मूल तत्त्वकी ओर भी दृष्टि करे इस भावनासे प्रेरित हो कर कह दिया जाता है कि सिद्धि उपादानसे होती है। जब तक उपादान की ओर दृष्टि पात न होगा तब तक केवल निमित्तोंमें उलझे रहनेसे काम नहीं होता। और जब कोई उपादानको ही सब कुछ समझ प्राप्त निमित्तका उपयोग करनेमे अकर्मण्य हो जाता है तब निमित्तकी प्रधानतासे कथन होता है और कहा जाता है कि बिना निमित्त जुटाए कार्य नहीं होता। __ आकाशमें काली काली धनावली आच्छादित होने लगी तथा जब कभी जल वृष्टि होनेसे ग्रीष्मकी भयकरता कम हो गई इसलिये बरुआसागरसे प्रस्थान करने का निश्चय किया। आषाढ़ शुक्ल १० सं० २०.८ के दिन मध्यान्हकी सामायिकके बाद ज्यों ही प्रस्थान करने को उद्यत हुआ कि बहुतसे स्त्री पुरुष आ गये और स्नेहके आधीन संसारमें जो होता आया है करने लगे। सबकी इच्छा थी कि यहाँ पर चातुर्मास्य हो पर मैं एक बार ललितपुरका निश्चय कर चुका था इसलिये मैंने रुकना उचित नहीं समझा। लोगोंके अश्रुपात होने लगा तब मैंने कहा संसार एक विशाल कारागृह है। इसका संरक्षक कौन है ? यह दृष्टिगोचर तो नहीं फिर भी अन्तरङ्गसे सहज ही इसका पता चल
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy