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________________ २४२ मेरी जीवन गाथा प्रायः अनेक ग्रामोंमे मन्दिर वनवाये हैं, बड़े बड़े विशाल मन्दिर हैं। एक समय था कि जब भट्टारकों द्वारा जैनधर्मकी महती प्रभावना हुई परन्तु जबसे उनके पास परिग्रहकी प्रचुरता हुई और वे यन्त्र मन्त्र तथा औषध आदिका उपयोग करने लगे तबसे इनका चारित्र भ्रष्ट होने लगा और तभीसे इनका चमत्कार चला गया। अब इनकी दशा अत्यन्त शोचनीय होगई है। कई गदियाँ तो टूट गई और जो हैं उनके भट्टारक समाजमान्य नहीं रहे । नदगुवाँसे ३ मील चलकर अटेर आ गये। वीचमे २ मील पर चम्बलनदी थी। २ फर्लाङ्गका घाट था । प्रवचन हुआ, मनुष्य संख्या अच्छी थी। सायंकाल ४ बजे सार्वजनिक सभा हुई, जन अर्जन सभी आये । सबने यह स्वीकार किया कि शिक्षाके विना उपदेशका कोई असर नहीं होता अतः सर्वप्रथम हमे अपने वालकोंको शिक्षा देना चाहिए। शिक्षाके विना हम अविवेकी रहते हैं, चाहे जो हम ठग ले जाता है, हमारा चारित्रनिर्माण नहीं हो पाता है, हम अज्ञानावस्थाके कारण पशु कहलाते हैं । यद्यपि हम चाहते हैं कि संसारमं सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें परन्तु वोधके अभावमे कुछ नहीं जानते और सदा परके दास बने रहते हैं। ज्ञान प्रात्माका गुण है परन्तु कोई ऐसा आवरण है कि जिससे उसका विकाश का रहता है। शिक्षाके द्वारा वह आवरण दूर हो जाता है। दूसरे दिन प्रवचन हुआ । उपस्थिति अच्छी थी। पाठशालाके लिए जनताने उत्साहसे चन्दा दिया परन्तु कुछ आदमी अन्तरगसे देना नहीं चाहते अतः चन्दा देनेमे वीसों तरहके रोड़े अटकाते हैं। इनकी चेष्टासे सत्कार्यमे बहुत क्षति होती है। अटेरसे ५ मील चनकर परतापपुर आये । यहाँ १ चैत्यालय है, ४ घर जैनी हैं, बड़े प्रेमसे शास्त्र श्रवण किया, ३ घर शुद्ध भोजन बना, जिसके यहाँ हमारा आहार हुआ उसने ५१) अटेरकी पाठशालाको दिये। दसरे घर
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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