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________________ २३४ मेरी जीवन गाथा है । इस तरह धीरे धीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है। किसी मुनिको दक्षिण और उत्तरका विकल्प सता रहा है तो किसीको वीसपंथ और तेरहपंथका । किसीको दस्सा वहिष्कार की धुन है तो कोई शूद्र जल त्यागके पीछे पड़ा है । कोई स्त्री प्रक्षालके पक्ष में मस्त है तो कोई जनेऊ पहिराने और कटी में धागा बंधवानेमे व्यय है । कोई ग्रन्थ मालाओंके संचालक बने हुए हैं तो कोई ग्रन्थ छपवानेकी चिन्तामे गृहस्थोंके घर घरसे चन्दा माँगते फिरते हैं । किन्हीं के साथ मोटरें चलती हैं तो किन्हींके साथ गृहस्थ जन दुर्लभ कीमती चटाइयाँ और आसनके पाटे तथा छोलदारियाँ चलती हैं । त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिए आश्रय या उनकी सेवामें लीन रहते हैं । 'वहती गङ्गामें हाथ धोनेसे क्यों चूकें' इस भावनासे कितने ही विद्वान् उनके अनुयायी वन आँख मीच चुप बैठ जाते हैं या हाँ में हाँ मिला गुरुभक्तिका प्रमाणपत्र प्राप्त करने मे संलग्न रहते हैं । ये अपने परिणामोंकी गतिको देखते नहीं हैं | चारित्र और कषयका सम्बन्ध प्रकाश और अन्धकारके समान है । जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार नहीं और जहाँ अन्धकार है वहाँ प्रकाश नहीं । इसी प्रकार जहाँ चारित्र है वहाँ कपाय नहीं और जहाँ कपाय हैं वहाँ चारित्र नहीं । पर तुलना करनेपर बाजे वाजे व्रतियों की कपाय तो गृहस्थोंसे कहीं अधिक निकलती है । व्रतीके लिये शास्त्र निशल्य बताया है । शल्यों में एक माया भी शल्य होती है । उसक तात्पर्य यही है कि भीतर कुछ रूप रखना और बाहर कुछ रूप दिखाना । व्रती में ऐसी बात नहीं होना चाहिये । वह तो भीतर बाहर मनसा वाचा कर्मणा एक ही । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिस उद्देश्य से चारित्र ग्रहण किया है उस और दृष्टिपात करो और अपनी प्रवृत्तिको निर्मल बनाओ । उत्सूत्र प्रवृत्ति शोभा नहीं । 1
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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