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________________ १० मेरी जीवन गाथा से विद्यमान रहता ही है । यदि वह ज्ञान हममे न होता तो हम आपको अपना साधु न मानते और न आपको आहार दानकी चेष्टा करते । हम यह जानते हैं कि आहार दानसे पुण्यबन्ध होता है, आत्मा मे लोभ का निरास होता है और मार्गकी प्रभावना होती है । विना स्कूली शिक्षाके हममे दया भी है, हिंसासे भयभीत भी रहते हैं। भोजनादिमे निजींव अन्न पदार्थोंका भक्षण करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि इन बातोंमे हम लोग नागरिक मनुप्योंकी अपेक्षा न्यून नहीं हैं। केवल वाह्य आडम्बरोंकी अपेक्षा उनसे जघन्य हैं। यही कारण है कि आप लोग उनके प्रलोभनामे आ कर घण्टों व्याख्यान देकर भी विराम नहीं लेते हैं परन्तु हम लोगों पर आपकी इतनी भी दयादृष्टि नहीं होती कि थोड़ा भी समय प्रवचनमे लगा कर हमे सुमार्ग पर लानेकी चेष्टा करें। यह आपका दोष नहीं कालकी महिमा है। यदि तथ्य विचारसे इस पर आप परामर्श करेंगे तव हमारा भाव आपके हृदयंगम होगा। ग्रामोंकी अपेक्षा शहरोंमे न तो आपको अन्न ही उत्तम मिलता है और न जल ही। प्रथम तो जिनके द्वारा आपको भोजन मिलता है वे औरतें हाथसे आटा नहीं पीसती । वहुतोंके गृहमे तो पीसन की चक्की ही नहीं। पानीकी भी यही दुर्दशा है। घीकी कथा ही छोड़िये । हाँ, यह अवश्य है कि शहरमे धन्यवाद और कुछ अपील करने पर धन मिल जाता है जिससे वर्तमानमें संस्थाएं चल रही हैं। परन्तु हमारा तो यह विश्वास है कि शहरमे जो धन मिलता है उसमें न्यायार्जितका भाग न होनेसे उसका सटुपयोग नहीं होता। यही कारण है कि समाजमें निरपेक्ष धर्मका उद्योग करनेवाले बहुत ही अल्प देखे जाते हैं। अब आप लोगों की इच्छा जहाँ चाहे जाइये हमारा उदय ही हमारा कल्याण करेगा।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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