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________________ २०२ मेरी जीवन गाया यह लौकिक स्नेह है सम्यग्दृष्टिका पारमार्थिक स्नेह इससे भिन्न रहता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य हमेशा इस वातका विचार रखता है कि यह हमारा सहधर्मी भाई सम्यग्दर्शन जान चारित्र रूप जो आत्माका धर्म है उससे कभी च्युत न हो जाय तथा अनन्त संसारके भ्रमणका पात्र न बन जाय। दूसरेके विषयमे ही यह चिन्ता करता हो सो वात नहीं अपने आपके प्रति भी यही भाव रखता है । सम्यग्दर्शनके निःशक्षित आदि आठ अङ्ग जिस प्रकार परके विषयमे होते हैं उसी प्रकार स्वके विषयसे भी होते हैं। रक्षाबन्धन रक्षाका पर्व है, परकी रक्षा वही कर सकता है जो स्वयं रक्षित हो । जो स्वय आत्माकी रक्षा करने में असमर्थ है वह क्या परका कल्याण कर सकता है ? रक्षासे तात्पर्य आत्माको पापसे पृथक करो पाप ही संसारकी जड़ है। जिसने इसे दूरकर दिया उसके समान भाग्यशाली अन्य कौन है ? आज जैन समाजसे वात्सल्य अङ्गका महत्व कम होता जा रहा हैं अपने स्वार्थके समक्ष आजका मनुष्य किसीके हानि लाभको नहीं देखता। हम और हमारे बच्चे आनन्दसे रहे परन्तु पड़ौसकी मोपड़ीमे क्या हो रहा है इसका पता लोगोंको नहीं। महलमें रहनेवालोंको पासमें वनी झोपड़ियोंकी भी रक्षा करनी होती है अन्यथा उनमे लगी आग उनके महलको भी भस्मसात् कर देती है । एक समय तो वह था कि जब मनुष्य वड़ेकी शरणमे रहना चाहते थे उनका ख्याल रहता था कि बड़ोंके आश्रयमें रहनेसे हमारी रक्षा रहेगी पर आजका मनुष्य बड़ोंके आश्रयसे दूर रहनेकी चेष्टा करता है क्योंकि उसका ख्याल बन गया है कि जिस प्रकार एक बडा वृक्ष अपनी छाँहम दूसरे छोटे पौधेको नहीं पनपने देता है उसी प्रकार वड़ा आदमी समापवर्ती-शरणागत अन्य मनुष्योंको नहीं
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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