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________________ १६८ मेरी जीवन गाथा अन्तरङ्गकी निर्मलता होना दूर है। इस समय चिन्तन तो इस बात का होना चाहिये कि हमारे ही समान चतुर्गतिरूप संसारमे परिभ्रमण करनेवाली अनन्त आत्माएं ज्ञानावरणादि कर्म मलको दूर कर आत्माकी शुद्ध दशाको प्राप्त हुई हैं। आत्मामें अशुद्धता पर पदार्थके सम्बन्धसे आती है। जिस प्रकार स्वर्णमें तामा पीतल आदि धातुओंके संमिश्रणसे अशुद्धता आती है उसी प्रकार आत्मामें कर्मरूप पुद्गल द्रव्यके सम्बन्धसे अशुद्धता आती है । इस अशुद्धताका कारण आत्माकी अनादि कालीन मोह तथा रागद्वेषरूप परिणति है। मोहके कारण यह स्वरूपको भूल कर अपनेको पररूप समझने लगता है। जिस प्रकार शृगालोंकी मांदमे पला सिंहका बालक अपनेको भी शृगाल समझने लगता है । इसी प्रकार मनुष्यादि रूप पुद्गलजन्य पर्यायोंके सम्पर्कमें रहनेवाला जीव अपनेको मनुष्यादि समझने लगता है। मनुष्यादि पर्यायोंके साथ इस जीवकी इतनी घनी आत्मीय बुद्धि हो जाती है कि वह उन्हें छोड़नेमे बड़े कष्टका अनुभव करता है । रागके कारण अन्य अनुकूल पदार्थोंमें इष्ट बुद्धि करता है और द्वपके कारण अन्य प्रतिकूल पदार्थों अनिष्ट बुद्धि करता है। जिसे इष्ट मान लेता है सदा उसके संयोगकी इच्छा करता है तथा उसके वियोगसे डरता है और जिसे अनिष्ट मान लिया है सदा उसके वियोगकी भावना रखता है तथा उसके संयोगसे डरता है। मोहकी पुट साथमे रहनेसे वह पदार्थके यथार्थ स्वरूपको समझनेमे असमर्थ रहता है इसलिये जिन कारणोंसे मुख होना चाहिये उन कारणों से यह दुःखका अनुभव करता है। जैसे किसी मनुष्यकी स्त्री मर गई यहाँ विवेकी मनुष्य तो यह सोचता है कि स्त्रीके निमित्तसे गृहस्थाश्रमकी नाना आकुलताका पात्र होना पड़ता था अब स्वयमेव वह सम्बन्ध छूट गया अतः आनन्दका अवसर हाथ आया है और मोही जीव सोचता है कि हाय मैं दुःखी हो गया। तत्त्वदृष्टिसे
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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