SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी जीवन गाथा यह है कि उन पदार्थोंमे निजत्व कल्पनाकर हम किसी पदार्थमें राग करते हैं और जो हमारे रागके विरुद्ध होता है उसे पर मानते हैं तथा उसके वियोगका यत्न करते हैं। इस प्रक्रियाको करते करते अन्तमें इस पर्यायका अन्त आ जाता है अनन्तर जिस पोयमे जाते हैं वहाँ भी यही प्रकिया काममे लाते हैं, इस तरह अनन्त संसारके पात्र होते हैं। यथार्थमे न तो अन्य पदार्थ हमारा है और न हम अन्यके हैं तब क्यों उनमें निजत्व कल्पना करते है ? यही कल्पना दूर करनेके अर्थ आगमाभ्यास है । आगममे तो इनका सुन्दर कथन है कि यदि वह हमारे अनुभवमे आ जावे तो कल्याणमार्ग अति सुलभ हो जावे। आत्मा नामक एक पदार्थ है उसका अनादि कालसे अजीब पुद्गलके साथ सम्बन्ध है। आत्मा चेतना गुणवाला द्रव्य है, पुद्गल जड़ है। उसका लक्षण स्पर्श रस गन्ध रूप है-जहाँ धे पाये जावें उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गलके साथ जीवका ऐसा सम्बन्ध है कि यह जीव उसे निज मान लेता है। निज मान कर उसको सदा रखनेका प्रयास करता है। यदि कोई उसमे बाधा पहुँचाता है तो उसे निज शत्रु मान लेता है। वास्तवमें यह कषाय ही नाना खेल रचता है इसलिये इसके निर्मूल करनेका प्रयत्न करो। - चातुर्मासका समय निकट आ रहा था इसलिए कई स्थानोंके लोग अपने अपने यहाँ चातुर्मास करनेकी प्रेरणा करते थे और मैं संकोचके कारण किसीको अप्रसन्न नहीं करना चाहता था । परमार्थसे यह हमारे हृदयकी बहुत भारी दुर्वलता है। जहाँ चौमासा करना इष्ट नहीं था वहाँके लोगोंको स्पष्ट मनाकर देनेमे हानि नहीं थी परन्तु मैं ऐसा नहीं कर सका । अन्तमें समाजकी अत्यधिक प्रेरणासे इटावामें ही चातुर्मास करनेका निश्चय कर लिया।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy