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________________ मेरी जीवन गाथा पन्नालालजी काव्यतीर्थ प्रोफेसर हिन्दू विश्वविद्यालयका व्याख्यान समयानुकूल हुआ, श्री व्र० चॉदमल्लजीका भी उत्तम व्याख्यान हुआ तदनन्तर मैंने भी कुछ कहा । मेरे कहनेका भाव यह था कि महती आवश्यकता विशुद्धिकी है बिना भेदज्ञानके विशुद्धि रूप परिणति होना दुष्कर है । भेदज्ञानका बाधक पर पदार्थमे निजत्व कल्पना है । भेदके होनेमें सब मुख्य कारण आत्मीय ज्ञानकी प्राप्ति है । जिस प्रकार हम घट पटादि पदार्थोंको जाननेमें मनोवृत्ति रखते हैं उसी प्रकार आत्मज्ञानमे भी हमे चेष्टा करना चाहिये । उपदेशका फल तो यह है कि परलोकके अर्थ प्रयत्न किया जावे । जो मनुष्य आत्मतत्त्वकी यथार्थतासे अनभिज्ञ हैं वे कदापि मोक्षमार्ग पात्र नहीं हो सकते । यहाँ कभी गोलसिंघारोंके मन्दिर में और कभी चैत्यालय प्रवचन होता था जनता अच्छी आती थी । यहॉ पर समयसारकी रुचिवाले बहुत हैं पर विशेषज्ञ गिनतीके हैं। एक दिन प्रवचनमे चर्चा आई कि क्या सम्यग्दृष्टि कुदेवादिककी पूजा कर सकता है ? मेरा भाव तो यह है कि जिसे अनन्त संसार के बन्धनोंसे छुटानेवाला सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया वह रागद्वेपसे लिप्त देवादिककी पूजा नहीं कर सकता वीतराग सर्वज्ञ तथा संभव हो तो हितोपदेशकत्व बिना अन्य किसी भी जीवके सुदेवत्व नहीं श्रता । भले ही वह जैनधर्मसे प्रेम रखता हो और जिन शासनकी प्रभावना : रता हो पर है कुदेव ही । समन्तभद्र स्वामीने इस विपयअपना अभिप्राय निम्न प्रकार दिया है । १७० भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टय. ॥ अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष भय, आशा, स्नेह और लोभके वशीभूत होकर कुदेव, कुप्रागम और कुलिङ्गयोंको प्रणाम न करे। लोग न
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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