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________________ १५६ मेरी जीवन गाथा निरन्तर जैन जातिके उत्कर्षमे मग्न रहता है तथा यथाशक्ति दान भी करते रहते हैं। आज कल आपका उद्योग वनारसमे ऐसा छात्रावास बनानेका है जिसमे २०० छात्र अध्ययन करें। तथा एक महान् मन्दिर भी वने, इस कार्यके लिए सर सेठ हुकुमचन्द्रजी इन्दौरवालोंने अस्सी हजारका विपुल दान दिया है । यहाँसे खिरनीसहाय गया। यहाँ दोपहर बाद श्री क्षुल्लक चिदानन्दजीका प्रवचन हुआ। मैं १ वागमें चला गया वहीं ४ बजे तक स्वाध्याय किया पश्चात् यहीं आ गया। एक दिन यहाँ प्रामके बाहर सड़क पर मन्दिर है उसमें गये। श्री बाबा चिदानन्दजीने अष्टमूलगुणपर व्याख्यान दिया पश्चात् मैंने भी घंटा कुछ कहा । परमार्थसे क्या कहा जावे ? क्योंकि जो वस्तु अनिर्वचनीय है उसे वचनोंसे व्यक्त करना एक तरहकी अनुचित प्रणाली है, परन्तु विना वचनके उसके प्रकाश करनेका मार्ग नहीं। यह सर्वसाधारणको विदित है कि ज्ञान ज्ञेयमें नहीं पाता, फिर भी उसे प्रकाशित करनेकी चेष्टा मनुष्य करते ही हैं। पौष वदी १ सं० २००६ को यहाँसे एटाके लिए प्रस्थान किया । ६ मील चलकर चक्की पर ठहर गये। सामायिक करनेके बाद चक्कीका स्वामी आ गया और अपनी व्यथा सुनाने लगा-सुनकर यही निश्चय हुआ कि संसारमे सर्व दुःखके पात्र हैं। सारांश यह है कि जो संसारमें सुख चाहते हैं वे पर पदार्थोंसे मूर्छा त्यागें। मूर्छा त्याग विना कल्याण नहीं। दूसरे दिन प्रातःकाल ७ बजे चलकर ६ वजे गङ्गा नहर पर आ गये। यहाँ कूपका पानी बहुत स्वादिष्ट था। भोजनोपरान्त कुछ लेट गये। स्थान अतिरम्य था । यहाँसे १२ मील शासनी ठीक दक्षिण दिशामें है। यहाँ पर एक ग्राम है। जिसका नाम पहाड़ी है। वहाँसे औरतें आयीं ओर महान् श्राग्रह करने लगी कि आज हमारे ग्राममें निवास करो।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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