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________________ १५४ मेरी जीवन गाथा पर चलावेंगे ? जो स्वयं अपनेको कर्म कलंकसे रक्षित नहीं कर सकते वह परकी रक्षा क्या करेंगे? यहाँसे चलकर मामन आये एक राजपूतके घर ठहरे। रात्रिको यह विचार उठे कि किसीसे कटुक वचन मत बोलो, सर्वदा सुन्दर हितकारी परिमित वचन वोलनेका प्रयास करो अन्यथा मौनसे रहो । समागम त्यागो, भोजनके समय अन्यको मत ले जाओ। भोजनमे लिप्साका त्याग करो। पराधीन भोजनमें सन्तोष रखना ही सुखका कारण है। यदि भिक्षा भोजन अङ्गीकृत किया है तो उसमे मनोवांछितकी इच्छा हास्यकरी है। 'भक्ष्यममृतम्' ऐसा आचार्यों का मत है । जो मानव गृहस्थीमे रत हैं उनकी ही लिप्सा शान्त नहीं होती तव अन्यकी कथा ही क्या है ? यहाँ दिल्लीसे जैनेन्द्रकिशोरजी सकुटुम्ब आये। राजकृष्णजी, उनके भाई, पं० राजेन्द्रकुमारजी, लाला मक्खनलालजी, पं० परमानन्दजी, श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्त्यार, लाला उलफतरायजी तथा श्रीसरदारीमल्लकीका वालक वा उनकी लड़की सूरजवाई आदि अनेक लोग आये। पं० खुशालचन्द्रजी एम. ए. साहित्याचार्य भी पधारे सवका आग्रह यही था कि दिल्ली चलो पर मैं तो गिरिराज जानेका निश्चय कर चुका था अत दिल्ली जानेके लिये तैयार नहीं हुआ। सब लोग निराश होकर लौट गये। ___ यहाँसे चल कर ४ मील बाद मरिपुर आ गये। यहाँपर कोरीका एक बालक ठण्डमे नंगा था उसे मैंने मेरे पास जो ३ गज कपडा था वह दे दिया यह देख लाला खचेडूमल तथा मंगलसेनजी ने भी उसे कपड़ा दिया। गरीवका काम बन गया यह देख मुझे हप हुआ । दया बड़ी वस्तु है, दयासे ही संसारकी स्थिति योग्य रहती है । जहाँ निर्दयता है वहाँ परस्परमे बहुत क्लह रहती हैं । इस समय संसारमे जो कलह हो रही है वह इसी दयाके अभावमे हो रही है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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