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________________ १४३ दिल्लीके शेष दिन दिल्लीके चातुर्मासका यह मेरा अन्तिम दिन था, इसलिये बहुत लोग आये । महासभाके मन्त्री परसादीलालजी आये । आप शान्त पुरुष हैं किन्तु आजकलकी परिस्थिति पर पूर्ण रीतिसे विचार नहीं करते । कुशल हैं और प्राचीनताके ऊपर बहुत बल देते हैं। प्राचीनता उत्तम है किन्तु उसका जो मार्मिक भाव है उसपर गम्भीर दृष्टिसे विचारना चाहिये। धर्मपर किसी जाति विशेषका अधिकार नहीं । प्रत्येक मनुष्य धर्मात्मा हो सकता है। जिन्हे हम अस्पृश्य शूद्र कहते हैं वे भी पञ्च पापोंका मूल जा मिथ्याभाव उसे छोड़ कर पञ्च पापका त्याग कर सकते हैं। यदि वे चाहे तो हम लोग जैसा शुद्ध भोजन करते हैं वे भी कर सकते हैं। __ हम दिल्लीमें आनन्दसे ३ माह २४ दिन रहे, सर्व प्रकारकी सुविधा रही। यहाँपर जनतामें धर्म श्रवणका अच्छा उत्साह रहा। समय-समयपर अनेक वक्ताओका यहाँ समागम होता रहता था। दिल्ली भारतकी राजधानी होनेसे व्याख्यान सभाओमें मनुष्य संख्या पुष्कल रहती थी। यहाँके व्याख्याता मुख्यमे थे-श्रीनिजानन्दजी क्षुल्लक, श्रीपूर्णसागरजी क्षुल्लक तथा श्रीचिदानन्दजी क्षुल्लक । मै वृद्धावस्थाके कारण बहुत कम भाग ले पाता था। त्यागियोंमे श्रीचांदमल्लजी साहब उदयपुरका भी अच्छा प्रभाव था। पण्डितोंमें श्रीराजेन्द्रकुमारजी संघ मंत्रीका व्याख्यान अति प्रभावक होता था। दसलक्षणपर्वके ६ दिन बड़ी शान्तिसे बीते। ६वें दिन न जाने हरिजनकी चर्चाने कहाँसे प्रवेश किया जो सर्व गुड़ मिट्टी हो गया। और मेरे मत्थे यह टीका मढ़ा गया कि वणींजी हरिजन प्रवेशके पक्षपाती हैं। यद्यपि मैं न तो पक्षपाती हू और न विरोधी हू किन्तु आत्माने यही साक्षी दी कि जो मनमे हो सो वचनोंसे कहो। यदि नहीं कह सकते तो तुमने अवतक धर्मका मर्म ही नहीं समझा। अनन्तानन्त आत्माएं हैं, परन्तु लक्षण सबके नाना नहीं,
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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