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________________ नम्र निवेदन १३१ जिसमे अधर्मका लेश न हो । उस परिणतिमे तो पुण्यको भी हेय माना है, क्योंकि पुण्यसे केवल स्वर्गकी प्राप्ति होती है और स्वर्ग में केवल भोगोंकी मुख्यता है - वे चतुर्थं गुणस्थानसे ऊपर नहीं जा सकते। आजन्म उसी गुणस्थानमे रहते हैं । मनुष्य पर्याय ही संयमका मूल कारण है । संयमके उदयमें ही यह जीव पर वस्तुके त्यागका पात्र हो सकता है । सम्यग्दर्शनके होते ही अभिप्राय निर्मल हो जाता है । पर वस्तुसे भिन्न आत्माको उसी समय जान जाता है । केवल चारित्रमोहके उदयसे ऐसा संस्कार बैठा हुआ है जिससे परको भिन्न जानकर भी यह जीव उसे त्यागनेमे असमर्थ रहता है । अस्तु, समाचार पत्रोंमें बहुत विवाद चला। दोनों पक्ष के लोगोंने अपनी अपनी बात लिखी । किसीने किसीको बुरा लिखा और किसीने किसीको । पदार्थका स्वरूप जैसा है वैसा है। लोग अपनीअपनी कषायसे प्रेरित हो उसे विवादकी भूमि बनाकर दुःखी होते हैं ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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